Thursday, August 26, 2021

धर्म

धर्म का सम्बन्ध व्यक्तिगत जीवन से होता है , मनुष्य यदि सामुदायिक विकास के लिये प्रयत्नशील नहीं होता,या सामुदायिक रूप से जीवन व्यतीत नहीं कर रहा होता, तो शायद लोगों के लिये धर्म की आवश्यकता भी नहीं होती ।
 
किन्तु यह धर्म ही है, जो मनुष्य को नैतिक और सामाजिक बनाता है तथा समाज या मनुष्य का सामुदायिक जीवन उसी नैतिकता के उपर प्रतिष्ठित है। और नैतिक जीवन की परिपूर्णता का ही दूसरा नाम आध्यात्मिकता है। इसीलिये सामाजिक व्यक्ति धार्मिक हुए बिना रह ही नहीं सकता है।
 
आध्यात्मिकता से व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों कल्याण साधित होते हैं। अतः सामाजिक न्याय के नाम पर धर्म के प्रति उदासीन हो जाने की शिक्षा देने से समाज का ही बहुत बड़ा अकल्याण हो रहा है।हमें ऐसा नहीं मान लेना चाहिये कि धर्म आम जनता के लिये नशा या भय जैसा है, बल्कि यह समझना चाहिए कि धर्म तो समाज का रक्त है।
 
उस रक्त के दूषित हो जाने से समग्र समाज-देह ही नष्ट हो जाता है। तथा वह रक्त यदि स्वस्थ और सबल रहे तो समाज हर प्रकार से स्वस्थ, प्राणवन्त और सुन्दर बना रहता है। हमारे सामाजिक जीवन में आज जो गंदगी व्याप्त है, उसका कारण विशुद्ध धर्म प्रवाह की कमी ही है। जीवन में चाहे विज्ञान का उपयोग कितना भी क्यों न बढ़ जाये, किन्तु केवल सुखकर या भोग की वस्तुओं को एकत्र कर लेने से ही मनुष्य के जीवन में सुख-शांति नहीं आ सकती है। 
 
प्राणि-शरीर के मस्तिष्क में स्थित परितोषण-केन्द्रही जब नष्ट हो जाता है, तो फिर उस जीव को कोई भी वस्तु कितनी ही मात्रा में क्यों न प्राप्त हो जाय, वह कभी संतृप्त ही नहीं हो सकता है। हमारे समाज-शरीर के मस्तिष्क का यह परितोषण-केन्द्र भी आज लगभग पूर्णतयः नष्ट ही हो चूका है।
 
वह केवल भोजन विलासी ही नहीं है अमित-आहारी बन चूका है। किन्तु असीमित आहार स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होता है। तथा समाज-शरीर में असीमित-आहार करने की बुराई प्रविष्ट हो जाने के कारण ही समाज दूष्ट बन गया है।धर्म मनुष्य में जितने सद्गुणों को प्रदान करता है, उसमें सयंम एक अत्यन्त मूल्यवान गुण है।
 
यह संयम ही है जो मस्तिष्क के परितोषण-केन्द्र केन्द्र को जीवित रखता है। इसलिये धर्म यह शिक्षा देता है कि जो व्यक्ति को अपने जीवन में में आनंद और प्रेम प्राप्त करना हैऔर जीवन को प्रगति की तरफ अग्रसर करना है उसके लिए जीवन में धर्मं की नितांत आवश्यकता है , धर्म यह भी कहता है कि-'प्रजाये कम् अमृतम् नावृनीत'-अर्थात साधारण जन का कल्याण करने के लिये कोई कोई व्यक्ति तो अमरत्व को भी त्याग देते हैं।
 
जिस समाज में धर्म का सुन्दर रूप दिखाई देता हो, उस समाज से धर्म को जड़-मूल सहित उखाड़ फेकने की बात करने के पहले, क्या हमें यह समझ लेना उचित नहीं होगा कि हमलोगों ने इस समय यथार्थ धर्म की जो उपेक्षा कर दी है, कहीं उसी के फलस्वरूप तो समाज के शीर्ष पदों पर बैठे व्यक्ति भी इतना नीचे नहीं गिर गये हैं ? समाज में धर्मं का पतन होना ही हमारे राष्ट्रीय और सामजिक पतन का कारण है।
 
धर्म के सार को आचरण में उतारने की कमी ही इसका कारण है। हमारे समाज ने यह समझ लिया है कि एक समग्र दृष्टि प्राप्त होने का परिणाम ही धर्म है। इसीलिये ऐसा धर्म किसी ऐरे-गैरे व्यक्ति के चिन्तन का परिणाम नहीं हो सकता। इसलिये धर्म के मूल भाव को समझे बिना जिस किसी शब्द के साथ धर्मं लगा देने से ही वह वस्तु धर्मं नहीं बन जाती। अधूरे दर्शन से समग्र-दृष्टि प्राप्त नहीं होती, उसमें कहीं न कहीं छिद्र रह ही जाती है।
 
इसीलिये उस धर्म रूपी फल के छिलके को खाने से व्यक्ति-जीवन या सामुदायिक-जीवन को पूर्ण रूप से पौष्टिकता प्राप्त नहीं होती। इसीलिये वर्तमान युग में भी यदि हमलोग स्वस्थ व्यक्तियों के समष्टि रूपी समाज का निर्माण करना चाहते हों, तो धर्म की नितान्त आवश्यकता है। जिस प्रकार फूल खिल जाने के बाद वह अपने ही लिये फल के रूप में उसके बीज को भी छोड़ जाता है। और उसी फल के बीज से भविष्य में फिर फूल खिलते हैं। फल के गूदे और बीज को संजोय रखने के लिये एक छिलके की आवश्यकता होती है। फल का छिलका भी कोई बिल्कुल व्यर्थ की वस्तु नहीं है, किन्तु केवल छिलके को लेकर ही व्यस्त रहा जाय तो पौष्टिकता प्राप्त होने की सम्भावना नहीं रहती।इस युग में भी समाज के भीतर धर्म है।
 
यदि यह नहीं होता तो समाज का अस्तित्व भी नहीं रह सकता था। किन्तु उसका प्रवाह अभी बहुत कमजोर हो गया है। सार्वजनिक दुर्गा-पूजा के पंडालों की बढ़ती हुई संख्या को दिखला कर उसके अस्तित्व का प्रमाण सिद्ध करने से काम नहीं चलेगा या ध्वजाधारी पहाड़ पर शिवरात्रि के मेले में बढ़ती हुई भीड़ को देख कर धर्म रूपी फल को खाकर समाज में स्वस्थ हुए मनुष्यों की वास्तविक संख्या का अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। मन की उर्वरा भूमि ही धर्म रूपी फल का जन्म लेने का क्षेत्र है,या मनोभूमि में ही धर्मफल उगता है। किन्तु जब उसमें किसी भाव-विशेष की वर्षा होती है, तो उसके बाद तुरंत उसके उपर कुछ खर-पतवार भी उगने लग जाते हैं।
 
प्रार्थना , पूजा की प्रयोजनीयता इसी जगह है। दस इन्द्रियों (पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ पाँच कर्म इन्द्रियाँ ) के खर-पतवार को काटने के लिये ही हमें दस-भुजा वाली देवी की आवश्यकता दसो-प्रहर बनी रहती है। इसीलिये मानव मनो-भूमि पर सार्थक खेती करने से धर्मं की फसल उगती है। मानव मनोभूमि पर खेती से उत्पन्न धर्म रूपी फल ही समाज-कल्याण तथा मानव-संस्कृति का मार्ग-दर्शक है। इसीलिये वर्तमान समाज को धर्म के छिलके से नहीं सार से प्लावित करना होगा, तभी मनोभूमि पर खेती करके धर्मं की फसल उगाई जा सकती है।
 
आज के दौर में आप किसी भी और स्वयं से भी प्रश्न पूछ कर देखिये की वह या आप कौन है..तो उत्तर यही मिलेगा की कोई कहेगा की मैं हिन्दू हूँ, मुस्लिम हूँ, सिक्ख हूँ, जैन हूँ , बौद्ध हूँ, यहूदी हूँ , पारसी हूँ और भी न जाने किस किस पंथ या सम्प्रदाय का नाम लेगा लेकिन एक भी व्यक्ति आपको ऐसा नहीं मिलेगा की जो यह कहे की मैं धार्मिक हूँ ..
 
जो जीवन में धारण करने योग्य हो वाही धर्मं है .यह सृष्टि और उसमे हमारा जीवन कैसे चलता है, किन नियमों से नियमित है वह है धर्मं ,जीवन में करने योग्य क्या है यह बताता है धर्मं .परमपुरुष ने ,श्रीकृष्ण के नर-रूप में प्रकट होकर स्वयं यह ज्ञान दिया है. श्रीमद भग्वद गीता में "जिस पर सबकुछ आधारित है वही है धर्म और वे ही हैं परमपुरुष."-धर्म वह है जिसपर इस सृष्टि का अस्तित्व टिका है...
 
हमारे जीवन का अस्तित्व एवं हमारा विकास इसी पर आधारित है. धर्म सनातन है, शाश्वत है एवं सार्वभौम है. यह सदा एक है, कभी अनेक नहीं होता. धर्म किसी भी सम्प्रदाय, भौगोलिक सीमा अथवा किसी भी अन्य बंधन में बंधा या सीमायित नहीं है, इसी धर्म के सार को अभिव्यक्त किया कुरुक्षेत्र की रणभूमि में देवकीनंदन वासुदेव ने.हम सबका जीवन एक कुरुक्षेत्र ही है, और हम सब पार्थ की भाँति हैं-- --भ्रमित, चकित एवं समझ नहीं पाते कि करने योग्य क्या है...
 
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८- ६६॥
 
[ सभी कर्तव्यों/आश्रयों को त्याग कर, केवल मेरी शरण लो.
मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्ति दिला दूँगा, इसलिये शोक मत करो ।]
 
यह परमपुरुष की अभय-वाणी है !कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९- ३१॥[ कौन्तेय, तुम एकदम जानो कि मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता । ]
 
जगत के सभी महान पुरुषों के प्रति श्रद्धा रखते हुए परमपुरुष द्वारा निर्देशित सनातन धर्म का अनुशरण करें .ताकि हम सभी व्यक्ति, दम्पत्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र एवं विश्व कल्याण के पथ पर आगे बढ़ सकें, और यह सभी सार्थक हो सकें परमविभु के चरणों में !" हमलोगों का गंतव्य है ईश्वर-प्राप्ति, धारण-पालनी-सम्वेग-सिद्ध व्यक्तित्व-और इसका आसन मार्ग है ....
 
आचार्य में सक्रिय अनुरक्ति क्योंकि इससे होता है ..आत्मनियन्त्रण,परिवार-नियन्त्रण,राष्ट्र-नियन्त्रण, और इसी राष्ट्र-नियन्त्रण के द्वारा सारे विश्व के संग योगसूत्र की रचना करते हुए,सबकुछ लेकर,विवर्द्धन (furtherance /growth) की ओर अग्रसर होना,और, इन सब को सार्थक कर देना ईश्वर में !और, प्राप्ति का परम-बोध यही है."और मेरे दृष्टिकोण में यही है ..
 
मानव जीवन में धर्मं की आवश्यकता...यह मेरी व्यक्तिगे राय है , कृपया अगर आप इससे सहमत है तो आप इसे मेरे गुरु जानो का ज्ञान रुपी आशीर्वाद समझें और अगर आप आप इससे असहमत है तो इसे मेरी गलती या अल्पबुद्धि समझें...
 
****** धन्यवाद *****

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