Thursday, August 26, 2021

धर्म

धर्म का सम्बन्ध व्यक्तिगत जीवन से होता है , मनुष्य यदि सामुदायिक विकास के लिये प्रयत्नशील नहीं होता,या सामुदायिक रूप से जीवन व्यतीत नहीं कर रहा होता, तो शायद लोगों के लिये धर्म की आवश्यकता भी नहीं होती ।
 
किन्तु यह धर्म ही है, जो मनुष्य को नैतिक और सामाजिक बनाता है तथा समाज या मनुष्य का सामुदायिक जीवन उसी नैतिकता के उपर प्रतिष्ठित है। और नैतिक जीवन की परिपूर्णता का ही दूसरा नाम आध्यात्मिकता है। इसीलिये सामाजिक व्यक्ति धार्मिक हुए बिना रह ही नहीं सकता है।
 
आध्यात्मिकता से व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों कल्याण साधित होते हैं। अतः सामाजिक न्याय के नाम पर धर्म के प्रति उदासीन हो जाने की शिक्षा देने से समाज का ही बहुत बड़ा अकल्याण हो रहा है।हमें ऐसा नहीं मान लेना चाहिये कि धर्म आम जनता के लिये नशा या भय जैसा है, बल्कि यह समझना चाहिए कि धर्म तो समाज का रक्त है।
 
उस रक्त के दूषित हो जाने से समग्र समाज-देह ही नष्ट हो जाता है। तथा वह रक्त यदि स्वस्थ और सबल रहे तो समाज हर प्रकार से स्वस्थ, प्राणवन्त और सुन्दर बना रहता है। हमारे सामाजिक जीवन में आज जो गंदगी व्याप्त है, उसका कारण विशुद्ध धर्म प्रवाह की कमी ही है। जीवन में चाहे विज्ञान का उपयोग कितना भी क्यों न बढ़ जाये, किन्तु केवल सुखकर या भोग की वस्तुओं को एकत्र कर लेने से ही मनुष्य के जीवन में सुख-शांति नहीं आ सकती है। 
 
प्राणि-शरीर के मस्तिष्क में स्थित परितोषण-केन्द्रही जब नष्ट हो जाता है, तो फिर उस जीव को कोई भी वस्तु कितनी ही मात्रा में क्यों न प्राप्त हो जाय, वह कभी संतृप्त ही नहीं हो सकता है। हमारे समाज-शरीर के मस्तिष्क का यह परितोषण-केन्द्र भी आज लगभग पूर्णतयः नष्ट ही हो चूका है।
 
वह केवल भोजन विलासी ही नहीं है अमित-आहारी बन चूका है। किन्तु असीमित आहार स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होता है। तथा समाज-शरीर में असीमित-आहार करने की बुराई प्रविष्ट हो जाने के कारण ही समाज दूष्ट बन गया है।धर्म मनुष्य में जितने सद्गुणों को प्रदान करता है, उसमें सयंम एक अत्यन्त मूल्यवान गुण है।
 
यह संयम ही है जो मस्तिष्क के परितोषण-केन्द्र केन्द्र को जीवित रखता है। इसलिये धर्म यह शिक्षा देता है कि जो व्यक्ति को अपने जीवन में में आनंद और प्रेम प्राप्त करना हैऔर जीवन को प्रगति की तरफ अग्रसर करना है उसके लिए जीवन में धर्मं की नितांत आवश्यकता है , धर्म यह भी कहता है कि-'प्रजाये कम् अमृतम् नावृनीत'-अर्थात साधारण जन का कल्याण करने के लिये कोई कोई व्यक्ति तो अमरत्व को भी त्याग देते हैं।
 
जिस समाज में धर्म का सुन्दर रूप दिखाई देता हो, उस समाज से धर्म को जड़-मूल सहित उखाड़ फेकने की बात करने के पहले, क्या हमें यह समझ लेना उचित नहीं होगा कि हमलोगों ने इस समय यथार्थ धर्म की जो उपेक्षा कर दी है, कहीं उसी के फलस्वरूप तो समाज के शीर्ष पदों पर बैठे व्यक्ति भी इतना नीचे नहीं गिर गये हैं ? समाज में धर्मं का पतन होना ही हमारे राष्ट्रीय और सामजिक पतन का कारण है।
 
धर्म के सार को आचरण में उतारने की कमी ही इसका कारण है। हमारे समाज ने यह समझ लिया है कि एक समग्र दृष्टि प्राप्त होने का परिणाम ही धर्म है। इसीलिये ऐसा धर्म किसी ऐरे-गैरे व्यक्ति के चिन्तन का परिणाम नहीं हो सकता। इसलिये धर्म के मूल भाव को समझे बिना जिस किसी शब्द के साथ धर्मं लगा देने से ही वह वस्तु धर्मं नहीं बन जाती। अधूरे दर्शन से समग्र-दृष्टि प्राप्त नहीं होती, उसमें कहीं न कहीं छिद्र रह ही जाती है।
 
इसीलिये उस धर्म रूपी फल के छिलके को खाने से व्यक्ति-जीवन या सामुदायिक-जीवन को पूर्ण रूप से पौष्टिकता प्राप्त नहीं होती। इसीलिये वर्तमान युग में भी यदि हमलोग स्वस्थ व्यक्तियों के समष्टि रूपी समाज का निर्माण करना चाहते हों, तो धर्म की नितान्त आवश्यकता है। जिस प्रकार फूल खिल जाने के बाद वह अपने ही लिये फल के रूप में उसके बीज को भी छोड़ जाता है। और उसी फल के बीज से भविष्य में फिर फूल खिलते हैं। फल के गूदे और बीज को संजोय रखने के लिये एक छिलके की आवश्यकता होती है। फल का छिलका भी कोई बिल्कुल व्यर्थ की वस्तु नहीं है, किन्तु केवल छिलके को लेकर ही व्यस्त रहा जाय तो पौष्टिकता प्राप्त होने की सम्भावना नहीं रहती।इस युग में भी समाज के भीतर धर्म है।
 
यदि यह नहीं होता तो समाज का अस्तित्व भी नहीं रह सकता था। किन्तु उसका प्रवाह अभी बहुत कमजोर हो गया है। सार्वजनिक दुर्गा-पूजा के पंडालों की बढ़ती हुई संख्या को दिखला कर उसके अस्तित्व का प्रमाण सिद्ध करने से काम नहीं चलेगा या ध्वजाधारी पहाड़ पर शिवरात्रि के मेले में बढ़ती हुई भीड़ को देख कर धर्म रूपी फल को खाकर समाज में स्वस्थ हुए मनुष्यों की वास्तविक संख्या का अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। मन की उर्वरा भूमि ही धर्म रूपी फल का जन्म लेने का क्षेत्र है,या मनोभूमि में ही धर्मफल उगता है। किन्तु जब उसमें किसी भाव-विशेष की वर्षा होती है, तो उसके बाद तुरंत उसके उपर कुछ खर-पतवार भी उगने लग जाते हैं।
 
प्रार्थना , पूजा की प्रयोजनीयता इसी जगह है। दस इन्द्रियों (पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ पाँच कर्म इन्द्रियाँ ) के खर-पतवार को काटने के लिये ही हमें दस-भुजा वाली देवी की आवश्यकता दसो-प्रहर बनी रहती है। इसीलिये मानव मनो-भूमि पर सार्थक खेती करने से धर्मं की फसल उगती है। मानव मनोभूमि पर खेती से उत्पन्न धर्म रूपी फल ही समाज-कल्याण तथा मानव-संस्कृति का मार्ग-दर्शक है। इसीलिये वर्तमान समाज को धर्म के छिलके से नहीं सार से प्लावित करना होगा, तभी मनोभूमि पर खेती करके धर्मं की फसल उगाई जा सकती है।
 
आज के दौर में आप किसी भी और स्वयं से भी प्रश्न पूछ कर देखिये की वह या आप कौन है..तो उत्तर यही मिलेगा की कोई कहेगा की मैं हिन्दू हूँ, मुस्लिम हूँ, सिक्ख हूँ, जैन हूँ , बौद्ध हूँ, यहूदी हूँ , पारसी हूँ और भी न जाने किस किस पंथ या सम्प्रदाय का नाम लेगा लेकिन एक भी व्यक्ति आपको ऐसा नहीं मिलेगा की जो यह कहे की मैं धार्मिक हूँ ..
 
जो जीवन में धारण करने योग्य हो वाही धर्मं है .यह सृष्टि और उसमे हमारा जीवन कैसे चलता है, किन नियमों से नियमित है वह है धर्मं ,जीवन में करने योग्य क्या है यह बताता है धर्मं .परमपुरुष ने ,श्रीकृष्ण के नर-रूप में प्रकट होकर स्वयं यह ज्ञान दिया है. श्रीमद भग्वद गीता में "जिस पर सबकुछ आधारित है वही है धर्म और वे ही हैं परमपुरुष."-धर्म वह है जिसपर इस सृष्टि का अस्तित्व टिका है...
 
हमारे जीवन का अस्तित्व एवं हमारा विकास इसी पर आधारित है. धर्म सनातन है, शाश्वत है एवं सार्वभौम है. यह सदा एक है, कभी अनेक नहीं होता. धर्म किसी भी सम्प्रदाय, भौगोलिक सीमा अथवा किसी भी अन्य बंधन में बंधा या सीमायित नहीं है, इसी धर्म के सार को अभिव्यक्त किया कुरुक्षेत्र की रणभूमि में देवकीनंदन वासुदेव ने.हम सबका जीवन एक कुरुक्षेत्र ही है, और हम सब पार्थ की भाँति हैं-- --भ्रमित, चकित एवं समझ नहीं पाते कि करने योग्य क्या है...
 
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८- ६६॥
 
[ सभी कर्तव्यों/आश्रयों को त्याग कर, केवल मेरी शरण लो.
मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्ति दिला दूँगा, इसलिये शोक मत करो ।]
 
यह परमपुरुष की अभय-वाणी है !कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९- ३१॥[ कौन्तेय, तुम एकदम जानो कि मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता । ]
 
जगत के सभी महान पुरुषों के प्रति श्रद्धा रखते हुए परमपुरुष द्वारा निर्देशित सनातन धर्म का अनुशरण करें .ताकि हम सभी व्यक्ति, दम्पत्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र एवं विश्व कल्याण के पथ पर आगे बढ़ सकें, और यह सभी सार्थक हो सकें परमविभु के चरणों में !" हमलोगों का गंतव्य है ईश्वर-प्राप्ति, धारण-पालनी-सम्वेग-सिद्ध व्यक्तित्व-और इसका आसन मार्ग है ....
 
आचार्य में सक्रिय अनुरक्ति क्योंकि इससे होता है ..आत्मनियन्त्रण,परिवार-नियन्त्रण,राष्ट्र-नियन्त्रण, और इसी राष्ट्र-नियन्त्रण के द्वारा सारे विश्व के संग योगसूत्र की रचना करते हुए,सबकुछ लेकर,विवर्द्धन (furtherance /growth) की ओर अग्रसर होना,और, इन सब को सार्थक कर देना ईश्वर में !और, प्राप्ति का परम-बोध यही है."और मेरे दृष्टिकोण में यही है ..
 
मानव जीवन में धर्मं की आवश्यकता...यह मेरी व्यक्तिगे राय है , कृपया अगर आप इससे सहमत है तो आप इसे मेरे गुरु जानो का ज्ञान रुपी आशीर्वाद समझें और अगर आप आप इससे असहमत है तो इसे मेरी गलती या अल्पबुद्धि समझें...
 
****** धन्यवाद *****

Friday, June 11, 2021

विश्व की सबसे ज्यादा सम्रद्ध भाषा

क्या आप जानते है विश्व की सबसे ज्यादा सम्रद्ध भाषा कौनसी है.....

अंग्रेजी में 'THE QUICK BROWN FOX JUMPS OVER A LAZY DOG' एक प्रसिद्ध वाक्य है। जिसमें अंग्रेजी वर्णमाला के सभी अक्षर समाहित कर लिए गए, मज़ेदार बात यह है की अंग्रेज़ी वर्णमाला में कुल 26 अक्षर ही उप्लब्ध हैं जबकि इस वाक्य में 33 अक्षरों का प्रयोग किया गया जिसमे चार बार O और A, E, U तथा R अक्षर का प्रयोग क्रमशः 2 बार किया गया है। इसके अलावा इस वाक्य में अक्षरों का क्रम भी सही नहीं है। जहां वाक्य T से शुरु होता है वहीं G से खत्म हो रहा है। 
अब ज़रा संस्कृत के इस श्लोक को पढिये।-

*क:खगीघाङ्चिच्छौजाझाञ्ज्ञोSटौठीडढण:।*
*तथोदधीन पफर्बाभीर्मयोSरिल्वाशिषां सह।।* 

अर्थात: पक्षियों का प्रेम, शुद्ध बुद्धि का, दूसरे का बल अपहरण करने में पारंगत, शत्रु-संहारकों में अग्रणी, मन से निश्चल तथा निडर और महासागर का सर्जन करनार कौन? राजा मय! जिसको शत्रुओं के भी आशीर्वाद मिले हैं।

श्लोक को ध्यान से पढ़ने पर आप पाते हैं की संस्कृत वर्णमाला के *सभी 33 व्यंजन इस श्लोक में दिखाये दे रहे हैं वो भी क्रमानुसार*। यह खूबसूरती केवल और केवल संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा में ही देखने को मिल सकती है! 

पूरे विश्व में केवल एक संस्कृत ही ऐसी भाषा है जिसमें केवल एक अक्षर से ही पूरा वाक्य लिखा जा सकता है, किरातार्जुनीयम् काव्य संग्रह में *केवल “न” व्यंजन से अद्भुत श्लोक बनाया है* और गजब का कौशल्य प्रयोग करके भारवि नामक महाकवि ने थोडे में बहुत कहा है-

*न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नानानना ननु।*
*नुन्नोऽनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नुन्ननुन्ननुत्॥*

अर्थात: जो मनुष्य युद्ध में अपने से दुर्बल मनुष्य के हाथों घायल हुआ है वह सच्चा मनुष्य नहीं है। ऐसे ही अपने से दुर्बल को घायल करता है वो भी मनुष्य नहीं है। घायल मनुष्य का स्वामी यदि घायल न हुआ हो तो ऐसे मनुष्य को घायल नहीं कहते और घायल मनुष्य को घायल करें वो भी मनुष्य नहीं है। वंदेसंस्कृतम्! 

एक और उदहारण है।-

*दाददो दुद्द्दुद्दादि दादादो दुददीददोः*
*दुद्दादं दददे दुद्दे ददादददोऽददः*

अर्थात: दान देने वाले, खलों को उपताप देने वाले, शुद्धि देने वाले, दुष्ट्मर्दक भुजाओं वाले, दानी तथा अदानी दोनों को दान देने वाले, राक्षसों का खण्डन करने वाले ने, शत्रु के विरुद्ध शस्त्र को उठाया।

है ना खूबसूरत? इतना ही नहीं, क्या किसी भाषा में *केवल 2 अक्षर* से पूरा वाक्य लिखा जा सकता है? संस्कृत भाषा के अलावा किसी और भाषा में ये करना असम्भव है। माघ कवि ने शिशुपालवधम् महाकाव्य में केवल “भ” और “र ” दो ही अक्षरों से एक श्लोक बनाया है। देखिये –

*भूरिभिर्भारिभिर्भीराभूभारैरभिरेभिरे*
*भेरीरे भिभिरभ्राभैरभीरुभिरिभैरिभा:।*

अर्थात- निर्भय हाथी जो की भूमि पर भार स्वरूप लगता है, अपने वजन के चलते, जिसकी आवाज नगाड़े की तरह है और जो काले बादलों सा है, वह दूसरे दुश्मन हाथी पर आक्रमण कर रहा है।

एक और उदाहरण-

*क्रोरारिकारी कोरेककारक कारिकाकर।*
*कोरकाकारकरक: करीर कर्करोऽकर्रुक॥*

अर्थात- क्रूर शत्रुओं को नष्ट करने वाला, भूमि का एक कर्ता, दुष्टों को यातना देने वाला, कमलमुकुलवत, रमणीय हाथ वाला, हाथियों को फेंकने वाला, रण में कर्कश, सूर्य के समान तेजस्वी [था]।

पुनः क्या किसी भाषा मे केवल *तीन अक्षर* से ही पूरा वाक्य लिखा जा सकता है? यह भी संस्कृत भाषा के अलावा किसी और भाषा में असंभव है!
उदहारण- 

*देवानां नन्दनो देवो नोदनो वेदनिंदिनां*
*दिवं दुदाव नादेन दाने दानवनंदिनः।।*

अर्थात- वह परमात्मा [विष्णु] जो दूसरे देवों को सुख प्रदान करता है और जो वेदों को नहीं मानते उनको कष्ट प्रदान करता है। वह स्वर्ग को उस ध्वनि नाद से भर देता है, जिस तरह के नाद से उसने दानव [हिरण्यकशिपु] को मारा था।

अब इस छंद को ध्यान से देखें इसमें पहला चरण ही चारों चरणों में चार बार आवृत्त हुआ है, लेकिन अर्थ अलग-अलग हैं, जो यमक अलंकार का लक्षण है। इसीलिए ये महायमक संज्ञा का एक विशिष्ट उदाहरण है -

विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा विकाशमीयुर्जतीशमार्गणा:।
विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा:॥

अर्थात- पृथ्वीपति अर्जुन के बाण विस्तार को प्राप्त होने लगे, जबकि शिवजी के बाण भंग होने लगे। राक्षसों के हंता प्रथम गण विस्मित होने लगे तथा शिव का ध्यान करने वाले देवता एवं ऋषिगण (इसे देखने के लिए) पक्षियों के मार्गवाले आकाश-मंडल में एकत्र होने लगे।

जब हम कहते हैं की संस्कृत इस पूरी दुनिया की सभी प्राचीन भाषाओं की जननी है तो उसके पीछे इसी तरह के खूबसूरत तर्क होते हैं। यह विश्व की अकेली ऐसी भाषा है, जिसमें "अभिधान- सार्थकता" मिलती है अर्थात् अमुक वस्तु की अमुक संज्ञा या नाम क्यों है, यह प्रायः सभी शब्दों में मिलता है। जैसे इस विश्व का नाम संसार है तो इसलिये है क्यूँकि वह चलता रहता है, परिवर्तित होता रहता है-
संसरतीति संसारः गच्छतीति जगत् आकर्षयतीति कृष्णः रमन्ते योगिनो यस्मिन् स रामः इत्यादि।
जहाँ तक मुझे ज्ञान है विश्व की अन्य भाषाओं में ऐसी अभिधानसार्थकता नहीं है। 
Good का अर्थ अच्छा, भला, सुन्दर, उत्तम, प्रियदर्शन, स्वस्थ आदि है किसी अंग्रेजी विद्वान् से पूछो कि ऐसा क्यों है तो वह कहेगा है बस पहले से ही इसके ये अर्थ हैं क्यों हैं वो ये नहीं बता पायेगा।
ऐसी सरल और स्मृद्ध भाषा जो सभी भाषाओं की जननी है आज अपने ही देश में अपने ही लोगों में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड रही है बेहद चिंताजनक है।

मंत्र जप की महत्वपूर्ण विधि

।। मंत्र जप की महत्वपूर्ण विधि ।।
मंत्र जप से तो हम सभी परिचित हैं | किसी भी मंत्र को बार बार दोहराना या उच्चारण ही मंत्र जप कहलाता है | हम सभी कभी न कभी, जाने अनजाने किसी न किसी समय पर मन्त्र का उच्चारण करते हैं | यही जप है | आज हम इसे और विस्तार से स्पस्ट करने का प्रयाश करेंगे | हमारी धार्मिक पुस्तकों में जगह जगह मंत्र जप से होने वाले लाभ का वर्णन किया जाता है | अक्सर वर्णन मिलता है की इस मंत्र का इतना जप कीजिये | तो ये इसका फल मिलेगा, इत्यादि | हमारे धर्म शाश्त्र इस के गुणगान से भरे पड़े हैं |

मगर क्या बात है की वो फल लोगों को नहीं मिल पाता है | ज्यादातर लोगों की ये शिकायत रहती है, की मंत्र काम नहीं करता है | और ये जो सब पुरश्चरण (निश्चित संख्या में जप का अनुष्ठान) आदि का जो वर्णन हमारे शास्त्रों में किया गया है | वो केवल कपोल कल्पना है|इस प्रकार उन लोगों का जप से विश्वास ही उठ जाता है |

क्या वो लोग झूंठ बोल रहे हैं ? नहीं बिलकुल नहीं |
वो सत्य ही बोल रहे हैं | क्योंकि उन्हें ऐसा कुछ अनुभव नहीं हुआ है | और जब तक स्वयं को कोई अनुभव न हो तब तक चाहे सारी दुनिया उसे प्रमाणित करे वो सत्य नहीं है |

फिर क्या हमारे शास्त्र झूंठ बोल रहे है, की ऐसा करने से ये होगा, और ऐसा करने से ये होगा ? नहीं बिलकुल नहीं |
ये शत प्रितिशत सत्य है की जप का फल मिलता है | और जो भी अनुष्ठान आदि का वर्णन शास्त्रों में किया गया है वो पूर्णत सत्य है |तब प्रश्न उठता है की कैसे दोनों सच्चे हो सकते हैं ?

मैं बताता हूँ.........
साधक इसलिए सच्चा है | क्योंकि उसने अपनी पूरी सामर्थ्य लगाकर जप किया | जो जो भी शास्त्रों में" और उसके गुरु ने " बताया गया था | वो सब उसने किया | निश्चित शंख्या में जप, हवन, तर्पण व और सभी क्रियाएं | मगर उसके बाद भी जिस तरह के फल का वर्णन जगह जगह किया जाता है | उसे वो फल नहीं मिला | तो वो कहेगा की ऐसा कुछ नहीं होता, और ये सब बकवास है | वो झूंठ नहीं बोल रहा है | जो अनुभव हुआ है, वही वो बोल रहा है | और मात्र अनुभव ही सत्य है | बाकि सब झूंठ है | उसे अनुभव नहीं हुआ तो उसने इस सबको बेकार मान लिया | उसके बाद वो निराश हो गया | और फिर ये मार्ग ही छोड़ देता है | इसके बाद यदि कोई और भी उससे कुछ इस सम्बन्ध में पूछेगा | तो स्वाभाविक बात है की वो बोलेगा नहीं ये सब बकवास है | वो साधक तो साधना से विमुख हो ही चुका है |

इसमें किसी का दोष नहीं है | मात्र सही तरह से तरह से जप नहीं कर पाने की वजह से ऐसा है | हम मन्त्र जप के बारे में थोडा और स्पष्ट करते हैं !!

!! मंत्र जप में आने वाले विघ्न !! 
किसी भी जप के समय हमारा मन हमें सबसे ज्यादा परेशान करता है, और निरंतर तरह तरह के विचार अपने मन में चलते रहेंगे | यही मन का स्वभाव है और वो इसी सब में उलझाये रखेगा | तो सबसे पहले हमें मन से उलझना नहीं है | बस देखते जाना है न विरोध न समर्थन, आप निरंतर जप करते जाइये | आप भटकेंगे बार बार और वापस आयेंगे | इसमें कोई नयी बात नहीं है ये सभी के साथ होता है | ये सामान्य प्रिक्रिया है | इसके लिए हमें माला से बहुत मदद मिलती है | मन हमें कहीं भटकाता है मगर यदि माला चलती रहेगी तो वो हमें वापस वहीँ ले आएगी | ये अभ्याश की चीज है जब आप अभ्याश करेंगे तो ही जान पाएंगे !!

!! मंत्र जप के प्रकार !! 
सामान्यतया जप के तीन प्रकार माने जाते हैं जिनका वर्णन हमें हमारी पुस्तकों में मिला है, वो हैं :-

१. वाचिक जप :- वह होता है जिसमें मन्त्र का स्पष्ट उच्चारण किया जाता है।

२. उपांशु जप- वह होता है जिसमें थोड़े बहुत जीभ व होंठ हिलते हैं, उनकी ध्वनि फुसफुसाने जैसी प्रतीत होती है।

३. मानस जप- इस जप में होंठ या जीभ नहीं हिलते, अपितु मन ही मन मन्त्र का जाप होता है।
मगर जब हम मंत्र जप प्रारंभ करते हैं तो हम जप की कई अलग अलग विधियाँ या अवश्था पाते हैं !!

सबसे पहले हम मंत्र जप, वाचिक जप से प्रारंभ करते हैं | जिसमे की हम मंत्र जप बोलकर करते हैं, जिसे कोई पास बैठा हुआ व्यक्ति भी सुन सकता है | ये सबसे प्रारंभिक अवश्था है | सबसे पहले आप इस प्रकार शुरू करें | क्योंकि शुरुआत में आपको सबसे ज्यादा व्यव्धान आयेंगे | आपका मन बार बार दुनिया भर की बातों पर जायेगा | ऐसी ऐसी बातें आपको साधना के समय पर याद आएँगी | जो की सामान्यतया आपको याद भी नहीं होंगी | आपके आस पास की छोटी से छोटी आवाज पर आपका धयान जायेगा | जिन्हें की आप सामान्यतया सुनते भि नहीं हैं | जिससे की आपको बहुत परेशानी होगी | तो उन सब चीजों से अपना ध्यान हटाने के लिए आप जोर जोर से जप शुरू करेंगे | बोल बोलकर जप करते समय आपके जप की गति भी तेज़ हो जाएगी |

ये बात ध्यान देने की है की जितना भी आप बाहर जप करेंगे | उतना ही जप की गति तेज रहेगी और जैसे जैसे आप जितना अन्दर डूबते जायेंगे | उतनी ही आपकी गति मंद हो जाएगी | ये स्वाभाविक है, इसमें कोई परिवर्तन नहीं कर सकता है | आप यदि प्रयाश करें तो बोलते हुए भी मंद गति में जप कर सकते हैं | मगर अन्दर तेज गति में नहीं कर सकते हैं |

अगली अवश्था आती है जब हमारी वाणी मंद होती जाती है | ये तब ही होता है जब आप पहली अवश्था में निपुण हो जाते हैं | जब आप बोल बोलकर जप करने में सहज हो गए और आपके मन में कोई विचार आपको परेशां नहीं कर रहा है तो दूसरी अवश्था में जाने का समय हो गया है | इसमें नए लोगों को समय लगेगा | मगर प्रयाश से वो स्थिती जरूर आएगी | तो जब आप सहज हो जाएँ तो सबसे पहले क्या करना है की अपनी ध्वनी को धीमा कर दें | और जैसे कोई फुसफुसाता है उस अवश्था में आ जाएँ | अब यदि कोई आपके पास बैठा भी है तो उसे ये पता चलेगा की आप कुछ फुसफुसा रहे हैं | मगर शब्द स्पस्ट नहीं जान पायेगा | जब आप पहली से दूसरी अवश्था में आते हैं तो फिर से आपको व्यवधान परेशान करेंगे | तो आप लगे रहिये, और ज्यादा परेशान हों तो फिर पहली अवश्था में आ जाएँ, और बोल बोलकर शुरू कर दें जब शांत हो जाएँ तो आवाज को धीमी कर दें और दूसरी अवश्था में आ जाएँ | थोडा समय आपको वहां पर अभ्यस्त होने में लगेगा | जैसे ही आप वहां अभ्यस्त हुए तो धीमे से अपने होंठ भी बंद कर दें |

ये तीसरी अवश्था है जहाँ पर आपके अब होंठ भी बंद हो गए हैं | मात्र आपकी जिह्वा जप कर रही है | अब आपके पास बैठा हुआ व्यक्ति भी आपका जप नहीं सुन सकता है | मगर यहाँ भी वही दिक्कत आती है की जैसे ही आप होंठ बंद करते हैं तो आपका ध्यान दूसरी बातों पर जाने लगता है | मन भटकने लगता है | तो यहाँ भी आपको वही सूत्र अपनाना है की होंठों को हिलाकर जप करना शुरू कर दीजिये | जो की आपका अभ्यास पहले ही बन चूका है और जब शांत हो जाएँ तो चुपके से होंठ बंद कर लीजिये, और अन्दर शुरू हो जाइये | इसी तरह आपको अभ्याश करना होगा | मन आपको बहकता है तो आप मन को बहकाइए | और एक अवश्था से दूसरी अवश्था में छलांग लगाते जाइये |

 इसके बाद चोथी अवश्था आती है मानस जप या मानसिक जप की | जब आपको कुछ समय हो जायेगा होठों को बंद करके जप करते हुए और आप इसके अभ्यस्त हो जायेंगे | भाइयों इस अवश्था तक पहुँचने में काफी समय लगता है | सब कुछ आपके अभ्याश व प्रयाश पर निर्भर करता है | तो उसके बाद आप अपनी जीभ को भी बंद कर देंगे | ये करना थोडा मुश्किल होता है क्योंकि जैसे ही आपकी जीभ चलना बंद होगी | तो आपका मन फिर सक्रीय हो जायेगा | और वो जाने कहाँ कहाँ की बातें आपके सामने लेकर आएगा | तो यहाँ भी वही युक्ति से काम चलेगा की जीभ चलाना शुरू कर दें | जब वहां आकाग्र हो जाये और फिर उसे बंद कर दें, और अन्दर उतर जाएँ और मन ही मन जप शुरू कर दें | धीरे धीरे आप यहाँ पर अभ्यस्त हो जायेंगे और निरंतर मन ही मन जप चलता रहेगा | इस अवश्था में आप कंठ पर रहकर जप करते रहते हैं |

इसके बाद किताबों में कोई और वर्णन नहीं मिलता है | मगर मार्ग यहाँ से आगे भी है | और असली अवश्था यहाँ के बाद ही आनी है |
इसके बाद आप और अन्दर डूबते जायेंगे | अन्दर और अन्दर धीरे धीरे | निरंतर अन्दर जायेंगे | लगभग नाभि के पास आप जप कर रहे होंगे | और धीरे धीरे जैसे जैसे आप वहां पर अभ्यस्त होंगे तो आप एक अवश्था में पाएंगे की मैं जप कर ही नहीं रहा हूँ |

बल्कि वो उठ रहा है | वो अपने आप उठ रहा है | नाभि से उठ रहा है | आप अलग है | हाँ आप देख रहे हैं की मैं जपने वाला हूँ ही नहीं | वो स्वयं उठ रहा है | आपका कोई प्रयाश उसके लिए नहीं है | आप अलग होकर मात्र द्रष्टा भाव से उसे देख रहे हैं और महसूस कर रहे हैं | ये शायद जप की चरम अवश्था है | निरंतर जप चल रहा है | वो स्वत है और आप द्रष्टा हैं | इसी अवश्था को अजपाजप कहा गया है | जिस अवश्था में आप जप नहीं कर रहें हैं मगर वो स्वयं चल रहा है |
धीरे धीरे इस अवश्था में आप देखेंगे कि आप कुछ और काम भी कर रहे हैं | तो भी जब भी आप ध्यान देंगे तो वो स्वयं चल रहा है | और यदि नहीं चल रहा है, तो जब भी आपका ध्यान वहां जाये | तो आप मानसिक जप शुरू कर दें | तो उस अवश्था में पहुँच जायेंगे |
शास्त्रों में जप के सभी फल इसी अवश्था के लिए कहे गए हैं | आप इस अवश्था में जप कीजिये और सभी फल आपको मिलेंगे | जप और ध्यान यहाँ पर एक ही हो जाते हैं | जैसे जैसे आप उस पर धयान देंगे तो आगे कुछ नहीं करना है | बस उस में एकाकार हो जाइये | और मंजिल आपके सामने होगी !!

!! आपका प्रयास !! 
सबसे अच्छा तरीका है कि आप जिस भी मंत्र का जप करते हैं | उसे कंठस्थ करें और जब भी आपके पास समय हो तभी आप अन्दर ही अन्दर जप शुरू कर दें | आप आसन पर नियम से जो जप करते हैं | उसे करते रहें उसी प्रकार | बस थोडा सा अतिरिक्त प्रयास शुरू कर दें |

कई सारे लोग कहेंगे की हमें समय नहीं मिलता है आदि आदि | कितना भी व्य्शत व्यक्ति हो वो कुछ समय के लिए जरूर फ्री होता है | तो आपको बस सचेत होना है | अपने मन को आप निर्देश दें और ध्यान दें | बस जैसे ही आप फ्री हों तो जप शुरू | और कुछ करने की जरूरत ही नहीं है | बस यही नियम और धीरे धीरे आप दुसरे कम ध्यान वाले कार्यों को करते हुए भी जप करते रहेंगे | निरंतर उस जप में डूबते जाइये |

जब आप सोने के लिए बिस्तर पर जाये तो अपने सभी कर्म अपने इष्ट को समर्पित करें | अपने आपको उन्हें समर्पित करें | और मन ही मन जप शुरू कर दें | और धीरे धीरे जप करते हुए ही सो जाएँ | शुरू शुरू में थोडा परेशानी महसूस करेंगे मगर बस प्रयास निरंतर रखें | इससे क्या होगा की आपका शरीर तो सो जायेगा | मगर आपका सूक्ष्म शरीर जप करता रहेगा | आपकी नींद भी पूरी हो गयी और साधना भी चल रही है |

जैसे ही सुबह आपकी ऑंखें खुलें तो अपने इष्ट का ध्यान करें | और विनती करें की प्रभु आज मुझसे कोई गलत कार्य न हो | और यदि आज कोई ऐसी अवश्था आये तो आप मुझे सचेत कर देना और मुझे मार्ग दिखाना | इसके बाद मानसिक जप शुरू कर दें | सभी और नित्य कार्यों को करते हुए इसे निरंतर रखें | फिर जब जब आप कोई गलत निर्णय लेने लगेंगे तो आपके भीतर से आवाज आएगी | धीरे धीरे आप अपने आपमें में परिवर्तन महसूस करेंगे | और धीरे धीरे आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ जायेंगे !!

मगर ये एक दिन में नहीं होगा | बहुत प्रयाश करना होगा | निरंतर चलना होगा | तभी मंजिल मिलेगी | इसलिए अपने आपको तैयार कीजिये और साधना में डूब जाइये | आपको सब कुछ मिलेगा।

गुरु?

गुरु किसी शरीर का नाम नही और न ही किसी अस्थि, मांस से निर्मित व्यक्ति को ही कहते हैं। गुरु तो वह तत्त्व है जिसके शरीर में ज्ञान की वह चेतना स्थिति है , जो ब्रह्म ज्ञान में लीन है।
चेतन गुरु तो वही होता है, जो देह से परे हैं और सबमें समाये हुए एक पवित्र आत्मिक लौ की तरह सदैव प्रज्ज्वलित हैं। मेरे मतानुसार जीवन्त गुरु की यही व्याख्या है, और सिर्फ ऐसा व्यक्तित्त्व ही गुरु होने के योग्य होता है। लोग अपने मत, पंथ अनुसार गुरु दीक्षा ग्रहण करते है, और करना भी चाहिये।

लेकिन दीक्षा ग्रहण करने पहले यह अवश्य जान लें कि दीक्षा है क्या? 
शिष्य के पूर्ण आत्मसमर्पण और गुरु के पूर्ण आत्मदान रूपी पवित्र संगम को दीक्षा कहते हैं।
साधना जहां जीवन की एक मन्द प्रक्रिया है, वहीं गुरु दीक्षा तत्काल साधक के आध्यात्मिक जीवन में ज्ञान- विज्ञान के परमाणु परिवर्तित कर देने की क्रिया है। 
जिसने अपने आप को सद्गुरु को अपने समाहित कर लिया वही शिष्य एकाकार होकर देवत्त्व प्राप्त कर सकता है।
।।ॐ गुं गुरुभ्यो नमः।।

Thursday, March 18, 2021

तांत्रिकों के आडम्बर

मुझे आज तक एक बात समझ में नही आई की सोशल मीडिया पर बड़े बड़े तांत्रिक बने बैठे लोग, अपनी प्रोफाइल या पोस्ट में शिव-शक्ति की मैथुन क्रिया का चित्र रख देते हैं, या फिर कई बार माँ कामख्या, भैरवी, योगिनी इत्यादि के योनि मुद्रा चित्र रख देते हैं, और ये उसके पीछे पवित्र भाव का दिखावा भी करते हैं।

यदि आप खुद इतने पवित्र हो तो खुद की और खुद की पत्नी की मैथुन क्रिया चित्र क्यों नहीं रख देते हैं ? जिससे की सभी को यह पता चले कि कितनी पवित्रता है आपके मन में मैथुन क्रिया और योनि के प्रति।

अगर आप योनि को इतना पवित्र और पूजनीय ही मानते हो तो खुद की माता की योनि भी प्रोफ़ाइल चित्र में रक्खें ताकि दुनिया भी जाने की ये महापुरुष इसी जगह से प्रकट हुए हैं और वो जगह कितनी पवित्र है।

अगर जगत के माता पिता की इस मुद्रा तस्वीर रख सकते हैं, तो अपने जन्मदाता माँ-बाप की भी इस मुद्रा की तस्वीर भी तो रख ही सकते हैं ये लोग। 

ये सब भी तो कोई वेबसाइट से डाउनलोड हुए नहीं हैं । तब शर्म वाली बात हो जाती है, तब गुप्त रखने वाली बात हो जाती है,  क्यों भाई ऐसा क्यों ? 

अगर कोई किसी से जिज्ञासावश पूछता है, तंत्र के बारे में तो कहते हैं कि ये बड़ी गुप्त विद्या है, हम नहीं बता सकते हैं । 

हम भी मानते है की जो चीज गुप्त रखनी है वो गुप्त ही रखनी चाहिए , तो फिर अपने आराध्य देव,देवी की ऐसी तस्वीरें दिखाकर के स्वयं ही अपने सनातन धर्म का मजाक दुनिया के सामने क्यों बनाते हैं । 

मजाक बना के रख दिया धर्म को ऐसे घटिया सोच वाले लोगों ने। धर्म दिखावा करने की चीज नहीं है । धर्म जीवन में धारण करने की चीज है, न कि प्रदर्शन की।

ऐसे लोगों से एक निवेदन है कि ऐसी आस्था का दिखावा मत कीजिये जिससे धर्म का मजाक बने। मन की पवित्रता मन की ही होती है जो व्यक्ति स्वयं ही जानता है । तो फिर दिखावा क्यों ? 

हम तंत्र औऱ इसकी पवित्र भावना का विरोध नहीं कर रहे है, पर पवित्रता के नाम पर हो रहे धर्म के मजाक का विरोध अवश्य करना चाहते हैं । 

यदि मेरी उपरोक्त बातों से किसी को बुरा लगे तो बहुत ही अच्छा होगा, की कम से कम इनको बुरा लगकर कुछ तो शर्म आएगी जिससे ऐसे लोगों में से कुछ लोग भी सुधर गए तो मेरे इस लेख का उद्देश्य सफल हो जाएगा।

Tuesday, March 9, 2021

नरदेह में जीवन्त पुरुषोत्तम ही अनुसरणीय हैं

नरदेह में जीवन्त पुरुषोत्तम  ही अनुसरणीय हैं।
अहं त्वां सर्व​-पापेभ्यो: मोक्षयिष्यामि मा शुचः:
(गीता १८|६६)
प्रभु कहते हैं कि मेरी शरण में आने पर मैं तुम्हें सभी पापों ( दुष्कर्मों के कर्मफल) से मुक्त दूँगा। यह अभयवाणी है प्रभु की ! तुम चाहे कोई भी क्यों न हो, अपने ह्रदय में मुझे स्थान दो, मुझे प्रेम करो, मुझे  सर्वोपरि बना कर मेरी शरण में आओ, सभी दुर्गुण और उनका प्रभाव तुमसे दूर हो जाएँगे। 

सर्व​ धर्मान् परित्यज्य: माम् एकं शरणं व्रज: 
अहं त्वां सर्व​-पापेभ्यो: मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।

भीष्म बड़े fine calibre के व्यक्ति थे. श्रीकृष्ण का सम्मान एक महापुरुष  में हमेशा करते थे।  पर जब उन्होंने देखा कि अपनी शस्त्र उठाने की प्रतिज्ञा तोड़ते हुए श्रीकृष्ण उन्हें मारने दौड़े चले आ रहे हैं तो उनका माथा ठनका ! तत्क्षण उन्होंने समझ लिया कि उनसे अबतक गलती कहाँ हो गयी है। और श्रीकृष्ण कोई महापुरुष -भर नहीं बल्कि पुरुषोत्तम हैं, स्वयं परमपुरुष हैं क्योंकि इस तरह धर्म की रक्षा कोई और नहीं  सकता। इसीलिए वे हाथ जोड़कर प्रार्थना की मुद्रा में बैठ गए और बोले कि हे प्रभु मुझे मार दीजिये !!  ( अर्जुन ने श्रीकृष्ण को  माफ़ी माँगते हुए रोक लिया था. उसकी अलग कथा है.)

अपनी  गलती समझ जाने के बाद भीष्म ने युधिष्ठिर को बुलाकर शिखण्डी वाली सब बातें बताईं कि कैसे उन्हें मारा जा सकता है। अगले दिन शर -शय्या पर लेट गए. 

अब एक रोचक बात सुनिए जो अखण्ड/ असंक्षिप्त महाभारत में वर्णित है। ( मैं अति संक्षेप में बता रहा हूँ.) 

युद्ध शेष  हो गया. शर -शय्या पर लेटे भीष्म श्रीकृष्ण का सुमिरन कर रहे हैं. ठीक उसी समय श्रीकृष्ण विदुर के महल में बिस्तर पर नेत्र मूँदे बैठे हैं. युधिष्ठिर सुबह -सुबह मिलने आये हैं पर श्रीकृष्ण के नेत्र बंद देख प्रतीक्षा में हैं कि वे आँखें खोलें। जब आँखें खुलती हैं तो युधिष्ठिर पूछते हैं -- हे प्रभु, यह किस गंभीर चिंतन में आप हैं ? युद्ध तो कल समाप्त हो गया, अब कैसी चिंता ?!! " 

श्रीकृष्ण कहते हैं -- " भीष्म मेरा ध्यान कर रहे हैं, युद्धिष्ठिर ! आप मेरे साथ उनके पास चलिए।" 

दोनों भीष्म के पास आते हैं. श्रीकृष्ण ने कहा -- "पितामह, युधिष्ठिर अभी राजा बन रहे हैं. आप  इन्हे सारा कुछ समझाईए कि राजा कैसे शासन करे, प्रशासन के नियम क्या हों, दण्ड व्यवस्था काया हो, समाज किन नियमों  जनता क्या -क्या और कैसे -कैसे करे ताकि राजा -प्रजा सभी धर्म मार्ग पर चलें। "  

भीष्म ने उत्तर दिया -- " जब  पुरुषोत्तम परमपुरुष, साक्षात देहधारी परमेश्वर, स्वयं युधिष्ठिर के पास हैं तो आपसे बेहतर कौन बता सकता है ? और सामने मेरी  क्या हैसियत है जो मैं बताऊँ ?"

श्रीकृष्ण -- " पर, पितामह, मैं  चाहता हूँ कि युगों युगों तक आपकी कीर्त्ति और आपका यश स्थापित हो. इसलिए मैं अपना मस्तिष्क आपमें आरोपित करता हूँ. मेरी बातों को आप ही कहिये।" 

इसके बाद भीष्म ने जो कहा उसी से भारतवर्ष में आगे आने वाले कई हज़ार वर्षों तक शासन, प्रशासन, राजनीति अनेक व्रत, त्योहार, कर्त्तव्य, जिम्मेवारियाँ आदि का निर्धारण हुआ. भीष्म ने सतयुग आरम्भ से सारी बात बताई कि  सामाजिक स्थिति कैसी थी, फिर राजनीति और राजा का उद्भव कैसे हुआ और तब से कैसे चला आ रहा है.  बृहद रूप से महाभारत शांति पर्व में है. 

श्रीकृष्ण ने तब यह परम्परा चलाई कि कोई भी सनातन धर्मी जब कभी श्राद्ध या तर्पण करेगा तो भीष्म पितामह को भी अवश्य तर्पण करेगा।  तब से आज तक आर्यों के तर्पण में भीष्म पितामह को तर्पण अवश्य किया जाता है. 

इसलिए भीष्म भीष्म हैं. महान हैं तभी तो गलती समझ गए वर्ना रावण, मेघनाद, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण ऐसे महाज्ञानी भी परमपुरुष श्री राम, श्रीकृष्ण की शरण न ले सके. 

" विस्तार है अपार, प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार, निःशब्द सदा
ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यों ?
उन्मद अवनी कुरुक्षेत्र बनी
गंगे जननी ! नव भारत में भीष्म-रूपी सुत समरजयी, 
जनती नहीं हो क्यों ?"

( भूपेन हजारिका का गाया प्रसिद्ध गीत)

शांति पर्व के उक्त प्रसंग में सबकुछ सुनने के बाद युधिष्ठिर ने विस्मय में आकर भीष्म से पूछा:

युधिष्ठिर उवाच ---

किमेकं दैवतं लोके किं वाप्येकं परायणम्। स्तुवन्तः कं कमर्चन्तः प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम्॥८॥
को धर्मः सर्वधर्माणां भवतः परमो मतः। किं जपन्मुच्यते जन्तुर्जन्मसंसारबन्धनात्॥९॥

"सभी लोकों में सर्वोत्तम देवता कौन है और किस एक का परायण किया जाए ? 
धर्म कौन है ? किसको जपने से जीव को संसार के बंधन से मुक्ति मिलती है?"

इसके उत्तर में जो भीष्म ने श्रीकृष्ण के बारे में कहा वह 'विष्णु सहस्रनाम' के रूप में प्रसिद्ध है।

भीष्म उवाच ---

जगत्प्रभुं देवदेवमनन्तं पुरुषोत्तमम्।
स्तुवन नामसहस्रेण पुरुषः सततोत्थितः॥१०॥  

योगो योगविदां नेता प्रधानपुरुषेश्वरः।
नारसिंहवपुः श्रीमान् केशवः पुरुषोत्तमः॥३॥

सर्वगः सर्वविद्भानुर्विष्वक्सेनो जनार्दनः।
वेदो वेदविदव्यङ्गो वेदाङ्गो वेदवित् कविः॥१४॥

सद्गतिः सत्कृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्परायणः।
शूरसेनो यदुश्रेष्ठः सन्निवासः सुयामुनः॥७५॥

भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयोऽनलः।
दर्पहा दर्पदो दृप्तो दुर्धरोऽथापराजितः॥७६॥

आत्मयोनिः स्वयंजातो वैखानः सामगायनः।
देवकीनन्दनः स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः॥१०६॥

विष्णु सहस्रनाम के प्रत्येक नाम-गुणों की व्याख्या जो आदि शंकराचार्य ने की है वह सबको पढ़नी चाहिए। 

वन्दे पुरुषोत्तमम् ।

Sunday, January 31, 2021

"हनुमान जी की प्रतिज्ञा


´´र´´ कार का अनुसंधान करके तो देख। पूर्वकृत कर्मों का नाश न कर दूं तो कहना।।
राम नाम को अपने ध्यान में बसाकर तो देख। तुझे मूल्यावान न बना दूं तो कहना।।
´´ अ´´ कार का अनुसंधान करके तो देख। अन्त:करण का अन्धकार न मिटा दूं तो कहना।।
राम नाम का मनन करके तो देख। ज्ञान के मोती तूझ में न भर दूं तो कहना।।
´´म´´ कार का अनुुसंधान करके तो देख। अमृतानन्द की वर्षा न कर दूं तो कहना।।
राम नाम को सहारा बना कर देख। तुम्हें सबकी गुलामी से न छुड़ां दूं तो कहना।।
´´र´´ ´अ´ ´म´ को मिलाकर ´राम´ लिख। जीवन मरण से मुक्त न करा दूं तो कहना।।
रामनामानुराग में आँसू बहा कर तो देख। तेरे जीवन में आनन्द की नदियां न बहा दूं तो कहना।।
राम नाम लिखना तो सिखो। कहां से कहां न पंहुचा दूं तो कहना।।
राम नाम का प्रचारक बन के तो देख। तुझे किमती न बना दूं तो कहना।।
जप मार्ग पर पैर रख कर तो देख। तेरे लिये सब मार्ग न खोल दूं तो कहना।।
भक्तिमयी राहों पर चलकर तो देख। तुझे शान्ति दूत न बना दूं तो कहना।।
राम नाम के लिये खर्च करके तो देख। कुबेर के भण्डार न खोल दूं तो कहना।।
राम नाम पर खुद को न्यौछावर करके तो देख। पूरा संसार न्यौछावर न कर दूं तो कहना।।
राम नाम सुन के सुना के तो देख। कृपा और कृपा न बरसा दूं तो कहना।।
´´राम´´ नाम का लिखित जप करके तो देख। माया से मुक्त न करा दूं तो कहना।।
राम नाम की तरफ हाथ बढ़ाकर तो देख। दौड़ कर गले न लगा लू तो कहना।।
राम नाम का तू बन के तो देख। हर एक को तेरा न बना दूं तो कहना।।

मानव जीवन का यथार्थ सत्य

मैंने हर रोज जमाने को रंग बदलते देखा है।
उम्र के साथ जिंदगी को ढंग बदलते देखा है ।
वो जो चलते थे तो शेर के चलने का होता था गुमान, उनको भी पाँव उठाने के लिए सहारे को तरसते देखा है ।
जिनकी नजरों की चमक देख सहम जाते थे लोग , उन्ही नजरों को बरसात की तरह रोते देखा है ।
जिनके हाथों के जरा से इशारे से टूट जाते थे पत्थर , उन्ही हाथों को पत्तों की तरह थर थर काँपते देखा है ।
जिनकी आवाज़ से कभी बिजली के कड़कने का होता था भरम,उनके होठों पर भी जबरन चुप्पी का ताला लगा देखा है ।
ये जवानी ये ताकत ये दौलत सब कुदरत की इनायत है, इनके रहते हुए भी इंसान को बेजान हुआ देखा है ।
अपने आज पर क़भी ना इतराना दोस्तों वक्त की धारा में अच्छे अच्छों को मजबूर हुआ देखा है।
कर सकते हो , तो किसी को खुश करो दुःख देते तो हजारों को देखा है।

Tuesday, January 5, 2021

ब्रह्म

ब्रह्म हिन्दू दर्शन में इस सारे विश्व का परम सत्य है और जगत का सार है ... वो ब्रह्माण्ड की आत्मा है .. वो ब्रह्माण्ड का कारण है, जिससे ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति होती है , जिसमें ब्रह्माण्ड आधारित होता है और अन्त मे जिसमें विलीन हो जाता है ..वो अद्वितीय है ..वो स्वयं ही परमज्ञान है, और प्रकाश-स्त्रोत है ... वो निराकार, अनन्त, नित्य और शाश्वत है ... ब्रह्म सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है...
 परब्रह्म :- परब्रह्म या परम-ब्रह्म ब्रह्म का वो रूप है, जो निर्गुण और असीम है ... "नेति-नेति" करके इसके गुणों का खण्डन किया गया है, पर ये असल मे अनन्त सत्य, अनन्त चित और अनन्त आनन्द है .. अद्वैत वेदान्त में उसे ही परमात्मा कहा गया है, ब्रह् ही सत्य है,बाकि सब मिथ्या है... 'ब्रह्म सत्यम जगन मिथ्या,जिवो ब्रम्हैव ना परः ,वह ब्रह्म ही जगत का नियन्ता है... 
 अपरब्रह्म:-  अपरब्रह्म ब्रह्म का वो रूप है, जिसमें अनन्त शुभ गुण हैं ... वो पूजा का विषय है, इसलिये उसे ही ईश्वर माना जाता है .. अद्वैत वेदान्त के मुताबिक ब्रह्म को जब इंसान मन और बुद्धि से जानने की कोशिश करता है, तो ब्रह्म माया की वजह से ईश्वर हो जाता है .....ब्रह्माण्ड का जो भी स्वरूप है वही ब्रह्म का रूप या है ..वह अनादि है, अनन्त है जिस तरह प्राण का शरीर में निवास है वैसे ही ब्रह्म का शरीर यानि ब्रह्माण्ड में निवास है ... वह कण-कण में व्याप्त है, अक्षर है, अविनाशी है, अगम है, अगोचर है, शाश्वत है , सत्य है ...ब्रह्म के प्रकट होने के चार स्तर हैं - ब्रह्म , ईश्वर, हिरण्यगर्भ एवं विराट ... भौतिक संसार विराट है, बुद्धि का संसार हिरण्यगर्भ है, मन का संसार ईश्वर है तथा सर्वव्यापी चेतना का संसार ब्रह्म है ... ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’:- ब्रह्म सत्य और अनन्त ज्ञान-स्वरूप है ... इस विश्वातीत रूप में वह उपाधियों से रहित होकर निर्गुण ब्रह्म या परब्रह्म परमात्मा कहलाता है ... जब हम जगत् को सत्य मानकर ब्रह्म को सृष्टिकर्ता, पालक, संहारक, सर्वज्ञ आदि उपाधियों से संबोधित करते हैं तो वह सगुण ब्रह्म या ईश्वर कहलाता है .. इसी विश्वगत रूप में वह उपास्य है ... ब्रह्म के व्यक्त स्वरूप (माया या सृष्टि) में बीजावस्था को हिरण्यगर्भ अर्थात सूत्रात्मा कहते हैं .. आधार ब्रह्म के इस रूप का अर्थ है सकल सूक्ष्म विषयों की समष्टि ... जब माया स्थूल रूप में अर्थात् दृश्यमान विषयों में अभिव्यक्त होती है तब आधार ब्रह्म वैश्वानर या विराट कहलाता है ...
...परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होने के लिए सत्य का अनुशरण और जीव मात्र के प्रति प्रेम की ज्योति प्राणों में जल जाना आत्मा किसी काल में न तो जन्मता और न मरता है; क्योंकि यह वस्त्र ही तो बदलता है। न यह आत्मा होकर अन्य कुछ होनेवाला है; क्योंकि यह अजन्मा है, नित्य है, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता। आत्मा सत्य है, आत्मा ही पुरातन है, आत्मा शाश्वत और सनातन है। आप कौन हैं? सनातन धर्म के अनुयायी। सनातन कौन है? आत्मा। आप आत्मा के अनुयायी हैं। आत्मा, परमात्मा और ब्रह्म एक दूसरे के पर्याय हैं। आप कौन हैं? शाश्वत धर्म के उपासक। शाश्वत कौन है? आत्मा। अर्थात् हम - आप आत्मा के उपासक हैं। यदि आप आत्मिक पथ को नहीं जानते तो आपके पास शाश्वत - सनातन नाम की कोई वस्तु नहीं है। उसके लिये आप आहेँ भरते हैं तो प्रत्याशी अवश्य हैं; किन्तु सनातनधर्मी नहीं हैं। सनातन धर्म के नाम पर किसी कुरीति के शिकार हैं।

देश - विदेश में, मानवमात्र में आत्मा एक ही जैसा है। इसलिये विश्व में कहीं भी कोई आत्मा की स्थिति दिलानेवाली क्रिया जानता है और उस पर चलने के लिये प्रयत्नशील है तो वह सनातनधर्मी है, चाहे वह अपने को ईसाई, मुसलमान, यहूदी या कुछ भी क्यों न कह ले।

पार्थिव शरीर को रथ बनाकर ब्रह्मरूपी लक्ष्य पर अचूक निशाना लगानेवाला पृथापुत्र अर्जुन ! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यक्त जानता है, वह पुरुष कैसे किसी को मरवाता है और कैसे किसी को मारता है? अविनाशी का विनाश असंभव है। अजन्मा जन्म नहीं लेता। अतः शरीर के लिये शोक नहीं करना चाहिये। इसी को उदाहरण से स्पष्ट करते हैं -

जैसे मनुष्य ' जीर्णानि वासांसि' - जीर्ण - शीर्ण पुराने वस्त्रों को त्यागकर नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, ठीक वैसे ही यह जीवात्मा पुराने शरीरोँ को त्यागकर दूसरे नये शरीरोँ को धारण करता है। जीर्ण होने पर ही नया शरीर धारण करना है, तो शिशु क्यों मर जाते हैं? यह वस्त्र तो और विकसित होना चाहिये। वस्तुतः यह शरीर संस्कारों पर आधारित है। जब संस्कार जीर्ण होते हैं तो शरीर छूट जाता है। यदि संस्कार दो दिन का है तो दूसरे दिन जीर्ण हो गया। इसके बाद मनुष्य एक श्वास भी अधिक नहीं जीता। संस्कार ही शरीर है। आत्मा संस्कारों के अनुसार नया शरीर धारण कर लेता है- 'अथ खलु क्रतुमयः पुरुषो यथा क्रतुरस्मिँल्लोके पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति।' (छान्दोग्योपनिषद्, ३/१४) अर्थात् यह पुरुष निश्चय ही संकल्पमय है। इस लोक में पुरुष जैसा निश्चयवाला होता है, वैसा ही यहाँ से मरकर जाने पर होता है। अपने संकल्प से बनाये हुए शरीरोँ में पुरुष उत्पन्न होता है। इस प्रकार मृत्यु शरीर का परिवर्तन मात्र है। आत्मा नहीं मरता। पुनः इसकी अजरता - अमरता पर बल देते हैं -

अर्जुन ! इस आत्मा को शस्त्रादि नहीं काटते, अग्नि इसे जला नहीं सकती, जल इसे गीला नहीं कर सकता और न वायु इसे सुखा ही सकता है।

यह आत्मा अच्छेद्य है- इसे छेदा नहीं जा सकता, यह अदाह्य है- इसे जलाया नहीं जा सकता, यह अक्लेद्य इसे गीला नहीं किया जा सकता, आकाश इसे अपने में समाहित नहीं कर सकता। यह आत्मा निःसंदेह अशोष्य, सर्वव्यापक, अचल, स्थिर रहनेवाला और सनातन है।

अविनाशी, अप्रमेय, नित्यस्वरूप आत्मा के ये सभी शरीर नाशवान् कहे गये हैं, इसलिये भरतवंशी अर्जुन ! आत्मा ही अमृत है। आत्मा ही अविनाशी है, जिसका तीनों काल में नाश नहीं होता। आत्मा ही सत् है। शरीर नाशवान् है यही असत् है, जिसका तीनों काल में अस्तित्व नहीं है।

 है ....
.... ॐ परब्रह्म परमात्मने नमः,उत्पत्ति ,स्थिति ,प्रलाय्कारय, ब्रह्महरिहराय, त्रिगुन्त्माने सर्वकौतुकानी दर्शन-दर्शय दत्तात्रेयाय नमः .....

तत्त्व ज्ञान

 ..प्रायः प्रत्येक साधक के भीतर यह जिज्ञासा रहती है कि तत्त्वज्ञान क्या है ? तत्त्वज्ञान सुगमता से कैसे हो सकता है ? आदि। इस जिज्ञासाकी पूर्ति करने के लिये प्रस्तुत लेख  जिज्ञासुओं  के लिये बड़े उपयोगी  है.. इसके अंतर्गत जो बातें आती  हैं, वे केवल सीखने-सिखाने की, सुनने-सुनाने की या पढने पढ़ाने के लिए  नहीं हैं, बल्कि  अनुभव करने की हैं.. दूर से देखने में तो कठिन दीखता है, पर प्रवेश करने पर बड़ा ही सुगम और रसीला है..परमात्मतत्त्व की खोज में लगे हुए जिज्ञासुओं से प्रार्थना है, कि वे तत्त्व ज्ञान का अध्ययन-मनन करें और तत्त्व का अनुभव करें.. सबसे पहले हमें यह जानना होगा की तत्त्व हैं क्या ..तभी हमें उनका यथार्थ ज्ञान हो सकेगा ..
  वेदों का ऐसा मानना  है कि सृष्टि का निर्माण 24 तत्वों से मिलकर हुआ है इनमें पांच ज्ञानेद्रियां (आंख,नाक, कान,जीभ,त्वचा)  पांच कर्मेन्द्रियां  (गुदा,लिंग,हाथ,पैर,वचन)  तीन अंहकार (सत, रज, तम)  पांच तन्मात्राएं   (शब्द,रूप,स्पर्श,रस,गन्ध) पांच तत्व (धरती, आकाश,वायु, जल,तेज)  और एक  मन  शमिल है... इन्हीं चौबीस तत्वों से मिलकर ही पूरी सृष्टि और मनुष्य का निर्माण हुआ है....                                                            

भगवान् श्रीकृष्ण के अनुसार हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है और उसमें अहम् नहीं है—यह बात यदि समझ में आ जाय तो इसी क्षण जीवनमुक्ति है ...इसमें समय लगने की बात नहीं है...समय तो उसमें लगता है, जो अभी नहीं और जिसका निर्माण करना है... जो अभी है, उसका निर्माण नहीं करना है, प्रत्युत उसकी तरफ दृष्टि डालनी है, उसको स्वीकार करना है जैसे—संकर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा....दो अक्षर हैं—‘मैं हूँ’...इसमें ‘मैं’ प्रकृति का अंश है, और ‘हूँ’ परमात्मा का अंश है, ‘मैं’ जड़ है और ‘हूँ’ चेतन है.. ‘मैं’ आधेय है और ‘हूँ’ आधार है.. ‘मैं’ प्रकाश्य है और ‘हूँ’ प्रकाशक है.. ‘मैं’ परिवर्तनशील है और ‘हूँ’ अपरिवर्तनशील है... ‘मैं’ अनित्य है और ‘हूँ’ नित्य है... ‘मैं’ विकारी है और ‘हूँ’ निर्विकार है.. ‘मैं’ और ‘हूँ’ को मिला लिया..यही चिज्जडग्रन्थि  (जड़-चेतन की ग्रन्थि)  है, यही बन्धन है, यही अज्ञान है.. ‘मैं’ और ‘हूँ’ को अलग-अलग अनुभव करना ही मुक्ति है तत्त्वबोध है... यहाँ इस वाक्य पर ध्यान केन्द्रित करना  आवश्यक है , कि ‘मैं’ को साथ मिलाने से ही ‘हूँ’ कहा जाता है... अगर ‘मैं’ को साथ न मिलायें तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, बल्कि  ‘है’ रहेगा.. वह ‘है’ ही अपना स्वरूप है...निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।।....एक ही व्यक्ति अपने बापके सामने कहता है कि ‘मैं बेटा हूँ’, बेटे के सामने कहता है कि ‘मैं बाप हूँ’, दादा के सामने कहता है कि ‘मैं पोता हूँ’, पोता के सामने कहता है कि ‘मैं दादा हूँ’, बहन के सामने कहता है कि ‘मैं भाई हूँ’, पत्नी से के सामने कहता है कि ‘मैं पति हूं’, आदि.. तात्पर्य है कि बेटा, बाप, पोता, दादा, भाई, पति,  आदि तो अलग-अलग हैं, पर ‘हूँ’ सबमें एक है.. ‘मैं’ तो बदला है, पर ‘हूँ’ नहीं बदला...वह ‘मैं’ बाप के सामने बेटा हो जाता, बेटे के सामने बाप हो जाता है , अर्थात् वह जिसके सामने जाता है, वैसा ही हो जाता है... अगर उससे पूछें कि ‘तू कौन है’ तो उसको खुद का पता नहीं है .. यदि ‘मैं’ की खोज करें तो ‘मैं’ मिलेगा ही नहीं, प्रत्युत सत्ता मिलेगी...कारण कि वास्तव में सत्ता ‘है’ की ही है, ‘मैं’ की सत्ता है ही नहीं... बेटे की अपेक्षा बाप है, बापकी अपेक्षा बेटा है—इस प्रकार बेटा, बाप, पोता, दादा आदि नाम अपेक्षासे (सापेक्ष) हैं; अतः ये स्वयं के नाम नहीं हैं... स्वयं का नाम तो निरपेक्ष ‘है’ है.. वह ‘है’ ‘मैं’ को जाननेवाला है... ‘मैं’ जाननेवाला नहीं है ..और जो जाननेवाला है, वह ‘मैं’ नहीं है.. ‘मैं’ ज्ञेय      (जानने में आनेवाला )  है और ‘है’ ज्ञाता  (जाननेवाला)  है.. ‘मैं’ एकदेशीय है और उसको जानने वाला ‘है’ सर्वदेशीय है... ‘मैं’ से सम्बन्ध मानें या न मानें, ‘मैं’ की सत्ता नहीं है.. सत्ता ‘है’ की ही है... परिवर्तन ‘मैं’ में होता है, ‘है’ में नहीं... ‘हूँ’ भी वास्तव में ‘है’ का ही अंश है.. ‘मैं’ पन को पकड़ने से ही वह अंश है.. अगर मैं-पन को न पकड़ें तो वह अंश  (‘हूँ’)  नहीं है, अपितु  ‘है’  (सत्ता मात्र है)  ‘मैं’ अहंता और ‘मेरा बाप, मेरा बेटा’ आदि ममता है.....अहंता-ममतासे रहित होते ही मुक्ति है—......
यही ‘ब्राह्मी स्थिति’ है....इस ब्राह्मी स्थितिको प्राप्त होनेपर अर्थात् ‘है’ में स्थिति का अनुभव होने पर शरीर का कोई मालिक नहीं रहता अर्थात् शरीर को मैं—मेरा कहनेवाला कोई नहीं रहता.........मनुष्य है, पशु है, पक्षी है, ईंट है, चूना है, पत्थर है— अनु  है परमाणुहै , सजीव है , निर्जीव है , प्रकाश है , अन्धकार है .. इस प्रकार वस्तुओं में तो फर्क है, पर ‘है’ में कोई फर्क नहीं है... ऐसे ही मैं मनुष्य हूँ,  मैं देवता हूँ,  मैं पशु हूँ,  मैं पक्षी हूँ—इस प्रकार मनुष्य आदि योनियाँ तो बदली हैं, पर स्वयं नहीं बदला है.. अनेक शरीरों में, अनेक अवस्थाओं में चिन्मय सत्ता एक है.... बालक, जवान और वृद्ध—ये तीनों अलग-अलग हैं, पर तीनों अवस्थाओं में सत्ता एक ही  है... कुमारी, विवाहिता और विधवा—ये तीनों अलग-अलग हैं, पर इन तीनोंमे सत्ता एक ही है..... जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधि—ये पाँचों अवस्थाएं अलग-अलग हैं, पर इन पाँचों में सत्ता एक ही  है... अवस्थाएँ बदलती हैं, पर उनको जाननेवाला नहीं बदलता.. ऐसे ही मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र, और निरुद्ध—इन पाँचों वृत्तियों में फर्क पड़ता है, पर इनको जाननेवाले में कोई फर्क नहीं पड़ता....एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।...... इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं ....
‘हे पार्थ ! यह ब्राह्मी स्थिति है... इसको प्राप्त होकर कभी कोई सम्मोहित नहीं होता, इस स्थिति में यदि अन्तकाल में भी स्थित हो जाय तो निर्वाण  (शान्त)  ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है.......’
यदि जाननेवाला भी परिवर्तित हो  जाय तो इनकी गणना कौन करेगा ?  सबके परिवर्तन का ज्ञान होता है, पर स्वयंके परिवर्तन का ज्ञान कभी किसी को नहीं होता...सबका इदं ता से भान होता है, पर अपने स्वरूप का इदं ता से भान कभी किसी को नहीं होता, सबके अभाव का ज्ञान होता है, पर अपने अभाव का ज्ञान कभी किसी को नहीं होता... इसलिए  ‘है’ (सत्तामात्र)  में हमारी स्थित स्वतः है, करनी नहीं है..बल्कि है... भूल यह होती है कि हम ‘संसार है’—इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप कर लेते हैं.. ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप करने से ही ‘नहीं’ (संसार) की सत्ता दीखती है, और ‘है’ की तरफ दृष्टि नहीं जाती.. वास्तव में ‘है में संसार’—इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का अनुभव करना चाहिये,.... ‘नहीं’ में ‘है’  का अनुभव करने से ‘नहीं’ नहीं रह जाएगा  और 
 रह जाएगा केवल है``..  और इसी ``है`` को पर्ब्रह्म्पर्मात्मा कहते हैं ... नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।.........असत् की सत्ता विद्यमान नहीं है, अर्थात् असत्का अभाव ही विद्यमान है, और इसी प्रकार सत् का अभाव विद्यमान नहीं है, अर्थात् सत् का भाव ही विद्यमान है...’
एक ही देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति आदि में अपनी जो  सत्ता दीखती है, वह अहम्  (व्यक्तित्व)  को लेकर ही दीखती है.. जबतक अहम रहता है, तभी तक मनुष्य अपने को एक देश, काल आदि में देखता है... अहम् के मिटने पर एक देश, काल आदि में परिच्छिन सत्ता नहीं रहती, बल्कि  अपरिच्छिन्न सत्तामात्र रहती है...

वास्तव में अहम है नहीं, केवल उसकी मान्यता है.... सांसारिक पदार्थों की जैसी सत्ता प्रतीत होती है, वैसी सत्ता भी अहम् की नहीं है... सांसारिक पदार्थ तो उत्पत्ति-विनाशवाले हैं, पर अहम् उत्पत्ति-विनाशवाला भी नहीं है... इसलिये तत्त्वबोध होने पर शरीरादि पदार्थ तो रहते हैं, पर अहम् मिट जाता है...
अतः तत्त्वबोध होने पर ज्ञानी नहीं रहता, अपितु  ज्ञानमात्र रह्जाता  है.......इसलिये आजतक कोई ज्ञानी हुआ नहीं, ज्ञानी है नहीं, ज्ञानी होगा भी नहीं और ज्ञानी होना सम्भव ही नहीं... अहम् ज्ञानी में होता है, ज्ञान में नहीं...... अतः ज्ञानी नहीं है,   ज्ञानमात्र है,  सत्तामात्र है..... उस ज्ञानका कोई ज्ञाता नहीं है, कोई धर्मी नहीं है, मालिक नहीं है.... कारण कि वह ज्ञान स्वयंप्रकाश है, अतः स्वयं से ही स्वयं का ज्ञान होता है... और यह प्रक्रिया ब्रहमांड के कण - कण में होती है ,  .. अज्ञान का मिट जाने से ही परमात्मा से मिलन होता है , और इसी अवस्था को तत्त्व का तत्त्व में विलय हो जाना , सत्य कहीं से आता नहीं है , असत्य का नाश हो जाता है , 
 वास्तव में ज्ञान होता नहीं है, बल्कि  अज्ञान मिटता है.. अज्ञान मिटाने को ही तत्त्वज्ञान कहते  हैं... ... 
और यही तत्त्व ज्ञान श्री कृष्ण जी ने अर्जुन और उद्धव को प्रदान किया था.... ॐ पर-ब्रह्मपर्मात्मने नमः ......