ब्रह्म हिन्दू दर्शन में इस सारे विश्व का परम सत्य है और जगत का सार है ... वो ब्रह्माण्ड की आत्मा है .. वो ब्रह्माण्ड का कारण है, जिससे ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति होती है , जिसमें ब्रह्माण्ड आधारित होता है और अन्त मे जिसमें विलीन हो जाता है ..वो अद्वितीय है ..वो स्वयं ही परमज्ञान है, और प्रकाश-स्त्रोत है ... वो निराकार, अनन्त, नित्य और शाश्वत है ... ब्रह्म सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है...
परब्रह्म :- परब्रह्म या परम-ब्रह्म ब्रह्म का वो रूप है, जो निर्गुण और असीम है ... "नेति-नेति" करके इसके गुणों का खण्डन किया गया है, पर ये असल मे अनन्त सत्य, अनन्त चित और अनन्त आनन्द है .. अद्वैत वेदान्त में उसे ही परमात्मा कहा गया है, ब्रह् ही सत्य है,बाकि सब मिथ्या है... 'ब्रह्म सत्यम जगन मिथ्या,जिवो ब्रम्हैव ना परः ,वह ब्रह्म ही जगत का नियन्ता है...
अपरब्रह्म:- अपरब्रह्म ब्रह्म का वो रूप है, जिसमें अनन्त शुभ गुण हैं ... वो पूजा का विषय है, इसलिये उसे ही ईश्वर माना जाता है .. अद्वैत वेदान्त के मुताबिक ब्रह्म को जब इंसान मन और बुद्धि से जानने की कोशिश करता है, तो ब्रह्म माया की वजह से ईश्वर हो जाता है .....ब्रह्माण्ड का जो भी स्वरूप है वही ब्रह्म का रूप या है ..वह अनादि है, अनन्त है जिस तरह प्राण का शरीर में निवास है वैसे ही ब्रह्म का शरीर यानि ब्रह्माण्ड में निवास है ... वह कण-कण में व्याप्त है, अक्षर है, अविनाशी है, अगम है, अगोचर है, शाश्वत है , सत्य है ...ब्रह्म के प्रकट होने के चार स्तर हैं - ब्रह्म , ईश्वर, हिरण्यगर्भ एवं विराट ... भौतिक संसार विराट है, बुद्धि का संसार हिरण्यगर्भ है, मन का संसार ईश्वर है तथा सर्वव्यापी चेतना का संसार ब्रह्म है ... ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’:- ब्रह्म सत्य और अनन्त ज्ञान-स्वरूप है ... इस विश्वातीत रूप में वह उपाधियों से रहित होकर निर्गुण ब्रह्म या परब्रह्म परमात्मा कहलाता है ... जब हम जगत् को सत्य मानकर ब्रह्म को सृष्टिकर्ता, पालक, संहारक, सर्वज्ञ आदि उपाधियों से संबोधित करते हैं तो वह सगुण ब्रह्म या ईश्वर कहलाता है .. इसी विश्वगत रूप में वह उपास्य है ... ब्रह्म के व्यक्त स्वरूप (माया या सृष्टि) में बीजावस्था को हिरण्यगर्भ अर्थात सूत्रात्मा कहते हैं .. आधार ब्रह्म के इस रूप का अर्थ है सकल सूक्ष्म विषयों की समष्टि ... जब माया स्थूल रूप में अर्थात् दृश्यमान विषयों में अभिव्यक्त होती है तब आधार ब्रह्म वैश्वानर या विराट कहलाता है ...
...परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होने के लिए सत्य का अनुशरण और जीव मात्र के प्रति प्रेम की ज्योति प्राणों में जल जाना आत्मा किसी काल में न तो जन्मता और न मरता है; क्योंकि यह वस्त्र ही तो बदलता है। न यह आत्मा होकर अन्य कुछ होनेवाला है; क्योंकि यह अजन्मा है, नित्य है, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता। आत्मा सत्य है, आत्मा ही पुरातन है, आत्मा शाश्वत और सनातन है। आप कौन हैं? सनातन धर्म के अनुयायी। सनातन कौन है? आत्मा। आप आत्मा के अनुयायी हैं। आत्मा, परमात्मा और ब्रह्म एक दूसरे के पर्याय हैं। आप कौन हैं? शाश्वत धर्म के उपासक। शाश्वत कौन है? आत्मा। अर्थात् हम - आप आत्मा के उपासक हैं। यदि आप आत्मिक पथ को नहीं जानते तो आपके पास शाश्वत - सनातन नाम की कोई वस्तु नहीं है। उसके लिये आप आहेँ भरते हैं तो प्रत्याशी अवश्य हैं; किन्तु सनातनधर्मी नहीं हैं। सनातन धर्म के नाम पर किसी कुरीति के शिकार हैं।
देश - विदेश में, मानवमात्र में आत्मा एक ही जैसा है। इसलिये विश्व में कहीं भी कोई आत्मा की स्थिति दिलानेवाली क्रिया जानता है और उस पर चलने के लिये प्रयत्नशील है तो वह सनातनधर्मी है, चाहे वह अपने को ईसाई, मुसलमान, यहूदी या कुछ भी क्यों न कह ले।
पार्थिव शरीर को रथ बनाकर ब्रह्मरूपी लक्ष्य पर अचूक निशाना लगानेवाला पृथापुत्र अर्जुन ! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यक्त जानता है, वह पुरुष कैसे किसी को मरवाता है और कैसे किसी को मारता है? अविनाशी का विनाश असंभव है। अजन्मा जन्म नहीं लेता। अतः शरीर के लिये शोक नहीं करना चाहिये। इसी को उदाहरण से स्पष्ट करते हैं -
जैसे मनुष्य ' जीर्णानि वासांसि' - जीर्ण - शीर्ण पुराने वस्त्रों को त्यागकर नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, ठीक वैसे ही यह जीवात्मा पुराने शरीरोँ को त्यागकर दूसरे नये शरीरोँ को धारण करता है। जीर्ण होने पर ही नया शरीर धारण करना है, तो शिशु क्यों मर जाते हैं? यह वस्त्र तो और विकसित होना चाहिये। वस्तुतः यह शरीर संस्कारों पर आधारित है। जब संस्कार जीर्ण होते हैं तो शरीर छूट जाता है। यदि संस्कार दो दिन का है तो दूसरे दिन जीर्ण हो गया। इसके बाद मनुष्य एक श्वास भी अधिक नहीं जीता। संस्कार ही शरीर है। आत्मा संस्कारों के अनुसार नया शरीर धारण कर लेता है- 'अथ खलु क्रतुमयः पुरुषो यथा क्रतुरस्मिँल्लोके पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति।' (छान्दोग्योपनिषद्, ३/१४) अर्थात् यह पुरुष निश्चय ही संकल्पमय है। इस लोक में पुरुष जैसा निश्चयवाला होता है, वैसा ही यहाँ से मरकर जाने पर होता है। अपने संकल्प से बनाये हुए शरीरोँ में पुरुष उत्पन्न होता है। इस प्रकार मृत्यु शरीर का परिवर्तन मात्र है। आत्मा नहीं मरता। पुनः इसकी अजरता - अमरता पर बल देते हैं -
अर्जुन ! इस आत्मा को शस्त्रादि नहीं काटते, अग्नि इसे जला नहीं सकती, जल इसे गीला नहीं कर सकता और न वायु इसे सुखा ही सकता है।
यह आत्मा अच्छेद्य है- इसे छेदा नहीं जा सकता, यह अदाह्य है- इसे जलाया नहीं जा सकता, यह अक्लेद्य इसे गीला नहीं किया जा सकता, आकाश इसे अपने में समाहित नहीं कर सकता। यह आत्मा निःसंदेह अशोष्य, सर्वव्यापक, अचल, स्थिर रहनेवाला और सनातन है।
अविनाशी, अप्रमेय, नित्यस्वरूप आत्मा के ये सभी शरीर नाशवान् कहे गये हैं, इसलिये भरतवंशी अर्जुन ! आत्मा ही अमृत है। आत्मा ही अविनाशी है, जिसका तीनों काल में नाश नहीं होता। आत्मा ही सत् है। शरीर नाशवान् है यही असत् है, जिसका तीनों काल में अस्तित्व नहीं है।
है ....
.... ॐ परब्रह्म परमात्मने नमः,उत्पत्ति ,स्थिति ,प्रलाय्कारय, ब्रह्महरिहराय, त्रिगुन्त्माने सर्वकौतुकानी दर्शन-दर्शय दत्तात्रेयाय नमः .....