नरदेह में जीवन्त पुरुषोत्तम ही अनुसरणीय हैं।
अहं त्वां सर्व-पापेभ्यो: मोक्षयिष्यामि मा शुचः:
(गीता १८|६६)
प्रभु कहते हैं कि मेरी शरण में आने पर मैं तुम्हें सभी पापों ( दुष्कर्मों के कर्मफल) से मुक्त दूँगा। यह अभयवाणी है प्रभु की ! तुम चाहे कोई भी क्यों न हो, अपने ह्रदय में मुझे स्थान दो, मुझे प्रेम करो, मुझे सर्वोपरि बना कर मेरी शरण में आओ, सभी दुर्गुण और उनका प्रभाव तुमसे दूर हो जाएँगे।
सर्व धर्मान् परित्यज्य: माम् एकं शरणं व्रज:
अहं त्वां सर्व-पापेभ्यो: मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।
भीष्म बड़े fine calibre के व्यक्ति थे. श्रीकृष्ण का सम्मान एक महापुरुष में हमेशा करते थे। पर जब उन्होंने देखा कि अपनी शस्त्र उठाने की प्रतिज्ञा तोड़ते हुए श्रीकृष्ण उन्हें मारने दौड़े चले आ रहे हैं तो उनका माथा ठनका ! तत्क्षण उन्होंने समझ लिया कि उनसे अबतक गलती कहाँ हो गयी है। और श्रीकृष्ण कोई महापुरुष -भर नहीं बल्कि पुरुषोत्तम हैं, स्वयं परमपुरुष हैं क्योंकि इस तरह धर्म की रक्षा कोई और नहीं सकता। इसीलिए वे हाथ जोड़कर प्रार्थना की मुद्रा में बैठ गए और बोले कि हे प्रभु मुझे मार दीजिये !! ( अर्जुन ने श्रीकृष्ण को माफ़ी माँगते हुए रोक लिया था. उसकी अलग कथा है.)
अपनी गलती समझ जाने के बाद भीष्म ने युधिष्ठिर को बुलाकर शिखण्डी वाली सब बातें बताईं कि कैसे उन्हें मारा जा सकता है। अगले दिन शर -शय्या पर लेट गए.
अब एक रोचक बात सुनिए जो अखण्ड/ असंक्षिप्त महाभारत में वर्णित है। ( मैं अति संक्षेप में बता रहा हूँ.)
युद्ध शेष हो गया. शर -शय्या पर लेटे भीष्म श्रीकृष्ण का सुमिरन कर रहे हैं. ठीक उसी समय श्रीकृष्ण विदुर के महल में बिस्तर पर नेत्र मूँदे बैठे हैं. युधिष्ठिर सुबह -सुबह मिलने आये हैं पर श्रीकृष्ण के नेत्र बंद देख प्रतीक्षा में हैं कि वे आँखें खोलें। जब आँखें खुलती हैं तो युधिष्ठिर पूछते हैं -- हे प्रभु, यह किस गंभीर चिंतन में आप हैं ? युद्ध तो कल समाप्त हो गया, अब कैसी चिंता ?!! "
श्रीकृष्ण कहते हैं -- " भीष्म मेरा ध्यान कर रहे हैं, युद्धिष्ठिर ! आप मेरे साथ उनके पास चलिए।"
दोनों भीष्म के पास आते हैं. श्रीकृष्ण ने कहा -- "पितामह, युधिष्ठिर अभी राजा बन रहे हैं. आप इन्हे सारा कुछ समझाईए कि राजा कैसे शासन करे, प्रशासन के नियम क्या हों, दण्ड व्यवस्था काया हो, समाज किन नियमों जनता क्या -क्या और कैसे -कैसे करे ताकि राजा -प्रजा सभी धर्म मार्ग पर चलें। "
भीष्म ने उत्तर दिया -- " जब पुरुषोत्तम परमपुरुष, साक्षात देहधारी परमेश्वर, स्वयं युधिष्ठिर के पास हैं तो आपसे बेहतर कौन बता सकता है ? और सामने मेरी क्या हैसियत है जो मैं बताऊँ ?"
श्रीकृष्ण -- " पर, पितामह, मैं चाहता हूँ कि युगों युगों तक आपकी कीर्त्ति और आपका यश स्थापित हो. इसलिए मैं अपना मस्तिष्क आपमें आरोपित करता हूँ. मेरी बातों को आप ही कहिये।"
इसके बाद भीष्म ने जो कहा उसी से भारतवर्ष में आगे आने वाले कई हज़ार वर्षों तक शासन, प्रशासन, राजनीति अनेक व्रत, त्योहार, कर्त्तव्य, जिम्मेवारियाँ आदि का निर्धारण हुआ. भीष्म ने सतयुग आरम्भ से सारी बात बताई कि सामाजिक स्थिति कैसी थी, फिर राजनीति और राजा का उद्भव कैसे हुआ और तब से कैसे चला आ रहा है. बृहद रूप से महाभारत शांति पर्व में है.
श्रीकृष्ण ने तब यह परम्परा चलाई कि कोई भी सनातन धर्मी जब कभी श्राद्ध या तर्पण करेगा तो भीष्म पितामह को भी अवश्य तर्पण करेगा। तब से आज तक आर्यों के तर्पण में भीष्म पितामह को तर्पण अवश्य किया जाता है.
इसलिए भीष्म भीष्म हैं. महान हैं तभी तो गलती समझ गए वर्ना रावण, मेघनाद, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण ऐसे महाज्ञानी भी परमपुरुष श्री राम, श्रीकृष्ण की शरण न ले सके.
" विस्तार है अपार, प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार, निःशब्द सदा
ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यों ?
उन्मद अवनी कुरुक्षेत्र बनी
गंगे जननी ! नव भारत में भीष्म-रूपी सुत समरजयी,
जनती नहीं हो क्यों ?"
( भूपेन हजारिका का गाया प्रसिद्ध गीत)
शांति पर्व के उक्त प्रसंग में सबकुछ सुनने के बाद युधिष्ठिर ने विस्मय में आकर भीष्म से पूछा:
युधिष्ठिर उवाच ---
किमेकं दैवतं लोके किं वाप्येकं परायणम्। स्तुवन्तः कं कमर्चन्तः प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम्॥८॥
को धर्मः सर्वधर्माणां भवतः परमो मतः। किं जपन्मुच्यते जन्तुर्जन्मसंसारबन्धनात्॥९॥
"सभी लोकों में सर्वोत्तम देवता कौन है और किस एक का परायण किया जाए ?
धर्म कौन है ? किसको जपने से जीव को संसार के बंधन से मुक्ति मिलती है?"
इसके उत्तर में जो भीष्म ने श्रीकृष्ण के बारे में कहा वह 'विष्णु सहस्रनाम' के रूप में प्रसिद्ध है।
भीष्म उवाच ---
जगत्प्रभुं देवदेवमनन्तं पुरुषोत्तमम्।
स्तुवन नामसहस्रेण पुरुषः सततोत्थितः॥१०॥
योगो योगविदां नेता प्रधानपुरुषेश्वरः।
नारसिंहवपुः श्रीमान् केशवः पुरुषोत्तमः॥३॥
सर्वगः सर्वविद्भानुर्विष्वक्सेनो जनार्दनः।
वेदो वेदविदव्यङ्गो वेदाङ्गो वेदवित् कविः॥१४॥
सद्गतिः सत्कृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्परायणः।
शूरसेनो यदुश्रेष्ठः सन्निवासः सुयामुनः॥७५॥
भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयोऽनलः।
दर्पहा दर्पदो दृप्तो दुर्धरोऽथापराजितः॥७६॥
आत्मयोनिः स्वयंजातो वैखानः सामगायनः।
देवकीनन्दनः स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः॥१०६॥
विष्णु सहस्रनाम के प्रत्येक नाम-गुणों की व्याख्या जो आदि शंकराचार्य ने की है वह सबको पढ़नी चाहिए।
वन्दे पुरुषोत्तमम् ।