Sunday, September 20, 2015

धर्म और धर्म गुरु

इस दुनिया में जो इतना अधर्म है , इस अधर्म का कारण नास्तिक लोग या अधार्मिक लोग नहीं हैं , और न ही इस इस अधर्म का कारण ईश्वर विरोधी लोग हैं .. मेरे दृष्टिकोण में इस अधर्म का कारण वे लोग हैं जो मिथ्या धर्मं की लकीर पीटते हैंऔर उस पर लोगों को भटकाते रहते  हैं .
करोड़ों लोगों को सदियों से धर्मं गुरुओं ने भटकाया है और वे आज भी भटका रहे हैं तथा करोड़ों लोग भटक रहे हैं. सारी दुनिया में ये धर्मं गुरु झगड़ों के अड्डे हैं .
धर्मं का भला झगडे से क्या सम्बन्ध हो सकता है , यह सारी व्यर्थ की चीजों में , सारी झूठी और पाखंड की बातों में आदमी को भटकाया जा रहा है..
किसी को कहा जा रहा है राम राम जपो
किसी को कहा जा रहा है अल्लाह अल्लाह जपो. 
धर्म के नाम पर इतने अधार्मिक धर्म गुरु प्रकट हो गए है जो स्वयं को अवतार,शक्ति, देवी और यहां तक स्वयं को भगवान तक घोषित कर देते हैंलेकिन कोई कुछ भी चीखे-चिल्लाये या शोर मचाये,नाचे -गाये ,या फिर पूजे -पुजवाये , कुछ भी कर ले वह व्यक्ति धार्मिक हो ही नहीं सकता,परमात्मा तक नहीं पहुँच सकता..
वहां तक तो सिर्फ वे पहुचते हैं जिनकी वाणी , शब्द , विचार सब ठहर जाते हैं , वहां कुछ भी चिल्लाने की जरुरत नहीं है , वहां तो चुप हो जाने और मौन हो जाने की जरुरत है , परमात्मा तक केवल वे पहुचते हैं जो सब भांति मौन हो जाते हैं , चुप्पी ले जाती हैं वहां , क्योंकि चुप्पी पर शोषण नहीं किया जा सकता है ,
मैं इस पोस्ट के माध्यम से बस इतना कहना चाहता हूँ की भगवान, ईश्वर, परमात्मा यह  कोई नाम नहीं है , जब तक नाम की पकड़ रहेगी तब तक वो नहीं मिलेगा , वह नाम रहित है , वह अन्नं, अन्नादि है..
न पहुँची कल्पना तुझ तक, न तुझको ज्ञान ने जाना,
थके विज्ञान-अन्वेषण, तपोबल ने न पहचाना !
छिपा सकते नहीं जिसको धरा नीचे, गगन ऊपर
छिपा लूँ नयन में कैसे, जगाऊँ किस तरह अन्तर !!
जब चित्त सारे नाम छोड़ देता है , सारे शब्द, शाश्त्र ,विचार सब छोड़ देता है चुपचाप खड़ा रह जाता है , तब वहां पहुच जाता है जहां हमारी पहुचने की वास्तविक आकांक्षा होती है .लेकिन कैसे पहुचें क्योंकि हम सब धार्मिक और साम्प्रादायिक बंधन रुपी खूटें से बंधें और जकड़े हुए हैं..
हमारा मन जब तक किसी से बंधा है चाहे वो धन, धर्मं , पत्नी, परिवार, या अपने द्वारा गढ़ा हुआ धर्मं या परमात्मा, मोक्ष , स्वर्ग , गृहश्थी या सन्यास ही क्यों न हो , तब तक आदमी वास्तविक धर्मं के सागर में प्रवेश नहीं कर सकता है , धर्मं के महासागर में प्रवेश करने के लिए एक ऐसा सत्व चित चाहिए जो कहीं भी बंधा न हो, जो एकदम खाली हो जिसकी कोई पकड़ न हो , वह तत्क्षण वहां पहुच जाता है जहां प्रभु का महासागर है ..
धर्म मानव को निष्क्रय नहीं बनाता है बल्कि उसको सक्रिय बनाता है. धर्म सत्य को स्वीकार करने की और उस पर चलने की आज्ञा देता है. धर्म का अर्थ मानवता का सम्पूर्ण विकाश है, धर्मं का कोई विशेष सम्प्रदाय नहीं होता है,धर्म वह संकल्पना है जो एक सामान्य पशुवत मानव को प्रथम इन्सान और फिर भगवान बनाने का सामर्थ रखती है. 
प्रत्येक व्यक्ति के भीतर स्थित ईश्वरता का नाम ही धर्म है. निस्वार्थ और पवित्र बनने का प्रयास ही धर्म है”.
धर्मं गुरु यह कहते हैं की ब्रह्मचर्य से मिलता है- "ईश्वर" 
त्याग से मिलता है -"ईश्वर" 
तप से मिलता है- "ईश्वर" 
लेकिन मेरा अपना मानना यह है की बात बिलकुल इसके उलटी है .
ईश्वर के मिलाने से यह सब चीजें मिल जाती हैं , यह सब बिना ईश्वर के मिले मिल ही नहीं सकता है .ये ईश्वर के मिलने पर खिले हुए फूल हैं , ये सब ईश्वर से मिल जाने पर जीवन में आई हुयी सुगंध है , अनुभूति है .जैसे कोई कहे की अँधेरा हट जाए तो प्रकाश जल जाता है, तो मैं कहूँगा बिलकुल गलत , प्रकाश जल जाए तो अँधेरा जरुर मिट जाता है ...
ईश्वर प्रकट हो जाए तो सब प्रकट हो जाता हैं ...जब हम परमात्मा से प्रेम करने लगते हैं तो कोई भी सांसारिक वस्तु इस लायक नहीं प्रतीत होती कि उससे प्रेम किया जाए, जिस प्रकार चातक को यह विश्वास होता है कि स्वाति नक्षत्र में बरसे जल से ही उसकी पिपासा शान्त होगी, तब चातक पक्षी पावस में गिरने वाली ओस की पहली बूंदों का प्यासा हो जाता है,तो उसे न तो तूफान का भय होता है और न ही बादलों की गर्जना का.
इसी प्रकार साधक को भी ऐसी प्यास उत्पन्न हो जाये तो परमात्मा की प्राप्ति सुलभ हो जाती है ..यदि एक बार ईश्वर सानिध्य का स्वाद चख लिया तो फिर उसे संसार की सभी वस्तुयें स्वत: ही बेजान और बेस्वाद लगने लगती हैं,तब सांसारिक सुख-दुःख की धरणा मिट जाती है, तब वह परम-आनन्द को प्राप्त कर सभी प्रकार से मुक्त हो जाता है.
अगर किसी भी धर्मं गुरु या व्यक्ति विशेष को मेरे इस लेख पर आपत्ति है तो स्पष्ट अपनी आपत्ति दर्शा सकते हैं, आप सभी के विचारों का स्वागत है ..धन्यबाद...


तत्त्वज्ञान


प्रायः प्रत्येक साधक के भीतर यह जिज्ञासा रहती है कि तत्त्व ज्ञान क्या है ? तत्त्वज्ञान सुगमता से कैसे हो सकता है ? आदि...
 इस जिज्ञासा की पूर्ति करने के लिये प्रस्तुत लेख जिज्ञासुओं के लिये अत्यंत उपयोगी है.. इसके अंतर्गत जो बातें आती हैं, वे केवल सीखने-सिखाने की, सुनने-सुनाने की या पढने पढ़ाने के लिए नहीं हैं, बल्कि अनुभव करने की हैं.. 

दूर से देखने में तो कठिन दीखता है, पर प्रवेश करने पर बड़ा ही सुगम और रसीला है..परमात्मतत्त्व की खोज में लगे हुए जिज्ञासुओं से प्रार्थना है, कि वे तत्त्व ज्ञान का अध्ययन-मनन करें और तत्त्व का अनुभव करें.. सबसे पहले हमें यह जानना होगा की तत्त्व हैं क्या ..तभी हमें उनका यथार्थ ज्ञान हो सकेगा ..

वेदों का ऐसा मानना है कि सृष्टि का निर्माण 24 तत्वों से मिलकर हुआ है इनमें
पांच ज्ञानेद्रियां (आंख,नाक, कान,जीभ,त्वचा) 
पांच कर्मेन्द्रियां (गुदा,लिंग,हाथ,पैर,वचन) 
तीन अंहकार (सत, रज, तम) पांच तन्मात्राएं (शब्द,रूप,स्पर्श,रस,गन्ध) 
पांच तत्व (धरती, आकाश,वायु, जल,तेज) और एक मन शमिल है... इन्हीं चौबीस तत्वों से मिलकर ही पूरी सृष्टि और मनुष्य का निर्माण हुआ है....

भगवान् श्रीकृष्ण के अनुसार हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है और उसमें अहम् नहीं है—यह बात यदि समझ में आ जाय तो इसी क्षण जीवनमुक्ति है ...इसमें समय लगने की बात नहीं है...समय तो उसमें लगता है, जो अभी नहीं और जिसका निर्माण करना है... जो अभी है, उसका निर्माण नहीं करना है, प्रत्युत उसकी तरफ दृष्टि डालनी है, उसको स्वीकार करना है जैसे—
शंकर  सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा....

दो अक्षर हैं—
‘मैं हूँ’...
इसमें ‘मैं’ प्रकृति का अंश है, और ‘हूँ’ परमात्मा का अंश है, ‘मैं’ जड़ है और ‘हूँ’ चेतन है.. ‘मैं’ आधेय है और ‘हूँ’ आधार है.. ‘मैं’ प्रकाश्य है और ‘हूँ’ प्रकाशक है.. ‘मैं’ परिवर्तनशील है और ‘हूँ’ अपरिवर्तनशील है... ‘मैं’ अनित्य है और ‘हूँ’ नित्य है... ‘मैं’ विकारी है और ‘हूँ’ निर्विकार है.. ‘मैं’ और ‘हूँ’ को मिला लिया..यही चिज्जडग्रन्थि (जड़-चेतन की ग्रन्थि) है, यही बन्धन है, यही अज्ञान है.. ‘मैं’ और ‘हूँ’ को अलग-अलग अनुभव करना ही मुक्ति है तत्त्वबोध है... 

यहाँ इस वाक्य पर ध्यान केन्द्रित करना आवश्यक है , कि ‘मैं’ को साथ मिलाने से ही ‘हूँ’ कहा जाता है... अगर ‘मैं’ को साथ न मिलायें तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, बल्कि ‘है’ रहेगा.. 

वह ‘है’ ही अपना स्वरूप है...निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।।....

एक ही व्यक्ति अपने बापके सामने कहता है कि ‘मैं बेटा हूँ’, बेटे के सामने कहता है कि ‘मैं बाप हूँ’, दादा के सामने कहता है कि ‘मैं पोता हूँ’, पोता के सामने कहता है कि ‘मैं दादा हूँ’, बहन के सामने कहता है कि ‘मैं भाई हूँ’, पत्नी से के सामने कहता है कि ‘मैं पति हूं’, आदि.. तात्पर्य है कि बेटा, बाप, पोता, दादा, भाई, पति, आदि तो अलग-अलग हैं, पर ‘हूँ’ सबमें एक है.. ‘मैं’ तो बदला है, पर ‘हूँ’ नहीं बदला...वह ‘मैं’ बाप के सामने बेटा हो जाता, बेटे के सामने बाप हो जाता है , अर्थात् वह जिसके सामने जाता है, वैसा ही हो जाता है... 
अगर उससे पूछें कि ‘तू कौन है’ तो उसको खुद का पता नहीं है .. यदि ‘मैं’ की खोज करें तो ‘मैं’ मिलेगा ही नहीं, प्रत्युत सत्ता मिलेगी...कारण कि वास्तव में सत्ता ‘है’ की ही है, ‘मैं’ की सत्ता है ही नहीं... बेटे की अपेक्षा बाप है, बापकी अपेक्षा बेटा है—इस प्रकार बेटा, बाप, पोता, दादा आदि नाम अपेक्षासे (सापेक्ष) हैं; अतः ये स्वयं के नाम नहीं हैं... 
स्वयं का नाम तो निरपेक्ष ‘है’ है.. वह ‘है’ ‘मैं’ को जाननेवाला है... ‘मैं’ जाननेवाला नहीं है ..और जो जाननेवाला है, वह ‘मैं’ नहीं है.. ‘मैं’ ज्ञेय (जानने में आनेवाला ) है और ‘है’ ज्ञाता (जाननेवाला) है.. ‘मैं’ एकदेशीय है और उसको जानने वाला ‘है’ सर्वदेशीय है... ‘मैं’ से सम्बन्ध मानें या न मानें, ‘मैं’ की सत्ता नहीं है.. सत्ता ‘है’ की ही है... परिवर्तन ‘मैं’ में होता है, ‘है’ में नहीं... ‘हूँ’ भी वास्तव में ‘है’ का ही अंश है.. ‘मैं’ पन को पकड़ने से ही वह अंश है.. अगर मैं-पन को न पकड़ें तो वह अंश (‘हूँ’) नहीं है, अपितु ‘है’ (सत्ता मात्र है) ‘मैं’ अहंता और ‘मेरा बाप, मेरा बेटा’ आदि ममता है.....

अहंता-ममतासे रहित होते ही मुक्ति है—....

यही ‘ब्राह्मी स्थिति’ है....इस ब्राह्मी स्थितिको प्राप्त होनेपर अर्थात् ‘है’ में स्थिति का अनुभव होने पर शरीर का कोई मालिक नहीं रहता अर्थात् शरीर को मैं—मेरा कहनेवाला कोई नहीं रहता.........मनुष्य है, पशु है, पक्षी है, ईंट है, चूना है, पत्थर है— अणु है परमाणुहै , सजीव है , निर्जीव है , प्रकाश है , अन्धकार है .. इस प्रकार वस्तुओं में तो फर्क है, पर ‘है’ में कोई फर्क नहीं है... ऐसे ही मैं मनुष्य हूँ, मैं देवता हूँ, मैं पशु हूँ, मैं पक्षी हूँ—इस प्रकार मनुष्य आदि योनियाँ तो बदली हैं, पर स्वयं नहीं बदला है.. अनेक शरीरों में, अनेक अवस्थाओं में चिन्मय सत्ता एक है.... 

बालक, जवान और वृद्ध—ये तीनों अलग-अलग हैं, पर तीनों अवस्थाओं में सत्ता एक ही है... कुमारी, विवाहिता और विधवा—ये तीनों अलग-अलग हैं, पर इन तीनोंमे सत्ता एक ही है..... जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधि—ये पाँचों अवस्थाएं अलग-अलग हैं, पर इन पाँचों में सत्ता एक ही है... अवस्थाएँ बदलती हैं, पर उनको जाननेवाला नहीं बदलता.. ऐसे ही मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र, और निरुद्ध—इन पाँचों वृत्तियों में फर्क पड़ता है, पर इनको जाननेवाले में कोई फर्क नहीं पड़ता...

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।...... इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं ....
‘हे पार्थ ! यह ब्राह्मी स्थिति है... इसको प्राप्त होकर कभी कोई सम्मोहित नहीं होता, इस स्थिति में यदि अन्तकाल में भी स्थित हो जाय तो निर्वाण (शान्त) ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है.......’

यदि जाननेवाला भी परिवर्तित हो जाय तो इनकी गणना कौन करेगा ? सबके परिवर्तन का ज्ञान होता है, पर स्वयंके परिवर्तन का ज्ञान कभी किसी को नहीं होता...सबका इदं ता से भान होता है, पर अपने स्वरूप का इदं ता से भान कभी किसी को नहीं होता, सबके अभाव का ज्ञान होता है, पर अपने अभाव का ज्ञान कभी किसी को नहीं होता... इसलिए ‘है’ (सत्तामात्र) में हमारी स्थित स्वतः है, करनी नहीं है..बल्कि है... भूल यह होती है कि हम ‘संसार है’—इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप कर लेते हैं.. ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप करने से ही ‘नहीं’ (संसार) की सत्ता दीखती है, और ‘है’ की तरफ दृष्टि नहीं जाती.. वास्तव में ‘है में संसार’—इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का अनुभव करना चाहिये,.... ‘नहीं’ में ‘है’ का अनुभव करने से ‘नहीं’ नहीं रह जाएगा और रह जाएगा केवल ‘’है``.. 

और इसी ``है`` को पर  ब्रह्म परमात्मा  कहते हैं ... 
नासतो विद्यते भावो 
नाभावो विद्यते सतः ....
असत् की सत्ता विद्यमान नहीं है, अर्थात् असत्का अभाव ही विद्यमान है, और इसी प्रकार सत् का अभाव विद्यमान नहीं है, अर्थात् सत् का भाव ही विद्यमान है...’

एक ही देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति आदि में अपनी जो सत्ता दीखती है, वह अहम् (व्यक्तित्व) को लेकर ही दीखती है.. जबतक अहम रहता है, तभी तक मनुष्य अपने को एक देश, काल आदि में देखता है... अहम् के मिटने पर एक देश, काल आदि में परिच्छिन सत्ता नहीं रहती, बल्कि अपरिच्छिन्न सत्तामात्र रहती है...

वास्तव में अहम है नहीं, केवल उसकी मान्यता है.... सांसारिक पदार्थों की जैसी सत्ता प्रतीत होती है, वैसी सत्ता भी अहम् की नहीं है... सांसारिक पदार्थ तो उत्पत्ति-विनाशवाले हैं, पर अहम् उत्पत्ति-विनाशवाला भी नहीं है... इसलिये तत्त्वबोध होने पर शरीरादि पदार्थ तो रहते हैं, पर अहम् मिट जाता है...

अतः तत्त्वबोध होने पर ज्ञानी नहीं रहता, अपितु ज्ञानमात्र रह जाता है.......इसलिये आजतक कोई ज्ञानी हुआ नहीं, ज्ञानी है नहीं, ज्ञानी होगा भी नहीं और ज्ञानी होना सम्भव ही नहीं... अहम् ज्ञानी में होता है, ज्ञान में नहीं...... अतः ज्ञानी नहीं है, ज्ञानमात्र है, सत्तामात्र है..... उस ज्ञानका कोई ज्ञाता नहीं है, कोई धर्मी नहीं है, मालिक नहीं है.... कारण कि वह ज्ञान स्वयंप्रकाश है, अतः स्वयं से ही स्वयं का ज्ञान होता है.

यह प्रक्रिया ब्रहमांड के कण - कण में होती है , .. अज्ञान का मिट जाने से ही परमात्मा से मिलन होता है , और इसी अवस्था को तत्त्व का तत्त्व में विलय हो जाना अर्थात तत्त्व का ज्ञान हो जाना या तत्त्व ज्ञान कहते हैं ... 

सत्य कहीं से आता नहीं है , असत्य का नाश हो जाता है , वास्तव में ज्ञान होता नहीं है, बल्कि अज्ञान मिटता है.. अज्ञान मिटाने को ही तत्त्वज्ञान कहते हैं... ...
और यही तत्त्व ज्ञान श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को श्रीमद भगवद गीता रुपी सर्वश्रेष्ठ ज्ञान प्रदान किया था.... 

ॐ पर-ब्रह्मपर्मात्मने नमः .

Saturday, September 19, 2015

जूनून और जज्बा

हमारे भारतवर्ष में लोगों का क्रिकेट के प्रति जो जूनून और जज्बा है वही देश में सभी मोर्चों पर भी नजर आये तो देश का कायाकल्प हो जायेगा. क्रिकेट के खेल में एक यह खूबी तो है ही की वह पूरे देश को एक कर देता है , एक अच्छे नागरिक में देश के प्रति जो भावना होती है वह भावना क्रिकेट के देखने के छड़ों में अद्भुत और अतुलनीय हो जाती है , राष्ट्रपति से लेकर चपरासी तक, प्रधानमंत्री से लेकर वार्ड मेंबर तक , उद्योगपति से मजदूर तक, बुजुर्गों से बच्चों तक ने अपने देश में क्रिकेट के प्रति ऐसा सकारात्मक परिवेश रच दिया है की जिसकी जरुरत केवल क्रिकेट या क्रिकेटरों को नहीं बल्कि पूरे देश को है . समाज में शोषण और भ्रस्टाचार के खिलाफ ऐसी ही एकता क्यों नहीं दिखती , जो भावना क्रिकेट के प्रति दिखती है वही भावना देश के प्रति अगर बरक़रार रहे तो फिर हमारे देश को अखिल विश्व में सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र बनने से कोई नहीं रोक सकता है. क्रिकेट की सेवा भी एक तरह से देश सेवा है लेकिन ऐसी सेवा भावना का विस्तार होना चाहिए, खेल में जीत हार अपनी जगह है लेकिन खेल में जो सकारात्मक भावना निर्मित होती है वो भावना बनी रहनी चाहिए , हमारे राष्ट्र वासियों को आज बेशक प्रतिद्वंदियों से दो - दो हाथ करने के लिए , अपनी तमाम समस्याओं को धुल चटाने के लिए ऐसा ही सकारात्मक  जूनून और जज्बा चाहिए , शासक से शासित तक, गरीब से अमीर तक , नेता से अभिनेता तक सभी के वही जूनून और जज्बा बना रहना चाहिए जो क्रिकेट देखते वक्त हमारे राष्ट्रवासियों में दिखाई पड़ता है.परिस्थिति चाहे जितनी विषम क्यों न हो हमें अपने इसी तरह के जूनून और जज्बे को हमें बरकरार रखना होगा होगा तभी ये देश और धर्मं तथा मानवता के विकास के कदम - कदम पर हमारे काम आएगा , वर्ग भेद और जातिभेद से परे जो सिर्फ राष्ट्र हित के लिए जो समर्पित एकता हो, आज उसी एकता, जूनून और जज्बे को देश की जरुरत है ....जय हिंद ...जय भारत ..

Tuesday, September 15, 2015

भारतीय कला एवं संस्कृति

किसी भी व्यक्ति का सांस्कृतिक महत्त्व इस बात पर निर्भर करता है कि उसने अपने अहंकार से स्वयं को कितना बंधन-मुक्त कर लिया है । वह व्यक्ति भी संस्कृत है, जो अपनी आत्मा को शुद्ध कर दूसरे के उपकार के लिए उसे विनम्र और विनीत बनाता है । कोई व्यक्ति जितना मन, कर्म, वचन से दूसरों के प्रति उपकार की भावनाओं और विचारों को प्रधानता देता है, उसी अनुपात से समाज में उसका सांस्कृतिक महत्त्व बढ़ता है । दूसरों के प्रति की गई भलाई अथवा बुराई को ध्यान में रखकर ही हम किसी व्यक्ति को भला-बुरा कहते हैं । सामाजिक सद्गुण ही, जिनमें दूसरों के प्रति अपने र्कत्तव्य-पालन या परोपकार की भावना प्रमुख हैं, व्यक्ति की संस्कृति को प्रौढ़ बनाती है । यहाँ एक तथ्य ध्यान देने योग्य है की संसार के जिन विचारकों ने इन विचार तथा कार्य-प्रणालियों को सोचा और निश्चित किया है, उनमें भारतीय विचारक सबसे आगे रहे हैं । विचारों के चिन्तन और मनन की गहराई में सनातन धर्म की तुलना अन्य सम्प्रदायों से नहीं हो सकती । भारत के सनातनी विचारकों ने जीवन मंथन कर जो महानतम निष्कर्ष निकाला है, उसके मूलभूत सिद्धांतों में वह कोई दोष नहीं मिलता, जो अन्य सम्प्रदायों या मत-मजहबों में प्रायः बाहुल्य में देखा जा सकता है । सनातन -धर्म महान् मानव धर्म है; व्यापक है और समस्त मानव मात्र के लिए कल्याणकारी है । वह मनुष्य में ऐसे भावनावों और विचारों को जागृत करता है, जिन पर आचरण करने से मनुष्य और समाज स्थायी रूप से सुख और शांति का अमृत-घूँट पी सकता है । सनातन संस्कृति में जिन उदार तत्वों का समावेश है, उनमें तत्वज्ञान के वे मूल सिद्धांत रखे गये हैं, जिनको जीवन में ढालने से आदमी सच्चे अर्थों में 'मनुष्य' बन सकता है । सनातन संस्कृति कहती है ''हे मनुष्यों! अपने हृदय में विश्व-प्रेम की ज्योति सदैव जलाये रक्खो, सबसे प्रेम करो, अपनी भुजाएँ फैलाकर कर प्राणीमात्र को प्रेम के पाश में बाँध लो, ब्रहमाण्ड के कण-कण को अपने प्रेम की सरिता से सींच दो । विश्व प्रेम वह अलौकिक एवं रहस्मय दिव्य रस है, जो एक हृदय से दूसरे को जोड़ता है । यह एक अलौकिक शक्ति सम्पन्न जादू भरा मरहम है, जिसे लगाते ही सबके रोग दूर हो जाते हैं । जीना है तो आदर्श और उद्देश्य के लिये जीओ । जब तक जीवित रहो विश्व-हित के लिए जिओ,अपनी सांस्कृतिक सम्पत्ति को सदैव सम्हाले रक्खो,सबको अपना समझो और अपनी वस्तु की तरह विश्व की समस्य वस्तुओं को अपने प्रेम की छाया में रखों, सबको आत्म-भाव और आत्म-दृष्टि से देखो ।

What is BRAHM ?

ब्रह्माण्ड का जो भी स्वरूप है वही ब्रह्म का रूप या शरीर है .. वह अनादि है, अनन्त है ... जैसे प्राण का शरीर में निवास है वैसे ही ब्रह्म का अपने शरीर या ब्रह्माण्ड में निवास है ... वह कण-कण में व्याप्त है, अक्षर है, अविनाशी है, अगम है, अगोचर है, शाश्वत है .. ब्रह्म के प्रकट होने के चार स्तर हैं - ब्रह्म, ईश्वर, हिरण्यगर्भ एवं विराट ... भौतिक संसार विराट है, बुद्धि का संसार हिरण्यगर्भ है, मन का संसार ईश्वर है तथा सर्वव्यापी चेतना का संसार ब्रह्म है ...
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ अर्थात् ब्रह्म सत्य और अनन्त ज्ञान-स्वरूप है .. इस विश्वातीत रूप में वह उपाधियों से रहित होकर निर्गुण ब्रह्म या परब्रह्म कहलाता है... जब हम जगत् को सत्य मानकर ब्रह्म को सृष्टिकर्ता, पालक, संहारक, सर्वज्ञ आदि औपाधिक गुणों से संबोधित करते हैं तो वह सगुण ब्रह्म या ईश्वर कहलाता है ...इसी विश्वगत रूप में वह उपास्य है ..ब्रह्म के व्यक्त स्वरूप (माया या सृष्टि) में बीजावस्था को हिरण्यगर्भ (सूत्रात्मा) कहते हैं ...आधार ब्रह्म के इस रूप का अर्थ है सकल सूक्ष्म विषयों की समष्टि .. जब माया स्थूल रूप में अर्थात् दृश्यमान विषयों में अभिव्यक्त होती है तब आधार ब्रह्म वैश्वानर या विराट कहलाता है ...प्रत्येक जीव अव्यक्त ब्रह्म है।बाह्य एवं अंत:प्रकृति को वशीभूत करके अपने इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है .... कर्म, उपासना, मन:संयम अथवा ज्ञान- इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपने ब्रह्मभाव को व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ...बस, यही धर्म का सर्वस्व है... मत, अनुष्ठान पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया-कलाप तो उसके गौण ब्यौरे मात्र हैं...‘आत्मन्’ या आत्मा पद भारतीय दर्शन के महत्त्वपूर्ण प्रत्ययों(concepts) में से एक है.....उपनिषदों के मूलभूत विषय-वस्तु के रूप में यह आता है....जहाँ इससे अभिप्राय व्यक्ति में अन्तर्निहित उस मूलभूत सत् से किया गया है जो कि शाश्वत तत्त्व है तथा मृत्यु के पश्चात् भी जिसका विनाशनहीं होता....
आत्मा या ब्रह्म के प्रत्यय का उद्भव का उपनिषदों में विचार किया गया है कि – जगत का मूल तत्त्व क्या है/कौन है ? इस प्रश्न का उत्तर में उपनिषदों में ब्रह्म’ से दिया गया है.. अर्थात् ब्रह्म ही वह मूलभूत तत्त्व है जिससे यह समस्त जगत का उद्भव हुआ है – “बृहति बृहंतिबृह्म” अर्थात् बढ़ा हुआ है, बढ़ता है इसलिये ब्रह्म कहलाता है.. यदि समस्त भूत जगत् ब्रह्म की ही सृष्टि है तब तार्किक रूप से हममें भी जो मूलतत्त्व है वह भी ब्रह्म ही होगा.. इसीलिये उपनिषदों में ब्रह्म एवं आत्मा को एक बतलाया गया है.. इसी की अनुभूति को आत्मानुभूति याब्रह्मानुभूति भी कहा गया है..
आत्मा’ शब्द के अभिप्राय – आत्मा शब्द से सर्वप्रथम अभिप्राय ‘श्वास-प्रश्वास’(breathing) तथा ‘मूलभूत-जीवन-तत्त्व’ किया गया प्रतीत होताहै.. इसका ही आगे बहुआयामी विस्तार हुआ जैसे यदाप्नोति यदादत्ति यदत्ति यच्चास्य सन्ततो भवम् ....
तस्माद् इति आत्मा कीर्त्यते...(सन्धि विच्छेद कृत)-------- शांकरभाष्य
अर्थात्, जो प्राप्त करता है(देह), जो भोजन करता है, जो कि सतत् (शाश्वत तत्त्व के रूप में) रहता है, इससे वह आत्मा कहलाता है...उपनिषदों में आत्मा विषयक चर्चा – तैत्तरीय उपनिषत् में आत्मा या चैतन्य के पाँच कोशों की चर्चा की गयी प्रथम अन्नमय कोश, मनोमयकोश, प्राणमय कोश, विज्ञानमय कोश तथा आनन्दमय कोश..... आनन्दमय कोश से ही आत्मा के स्वरूप की अभिव्यक्ति की गयी है......माण्डूक्यउपनिषत् में चेतना के चार स्तरों का वर्णन प्राप्त होता है –
1. जाग्रत 2. स्वप्न 3. सुषुप्ति 4. तुरीय
यह तुरीय अवस्था को ही आत्मा के स्वरूप की अवस्था कहा गया है -“शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थ स आत्मा स विज्ञेयः”-----माण्डूक्योपनिषत्...
छान्दोग्य उपनिषत् इसी सन्दर्भ में इन्द्र एवं विरोचन दोनों प्रजापति के पास जाकर आत्मा(ब्रह्म) के स्वरूप के विषय में प्रश्न करते हैं... यहाँ पर प्रणव या ॐ को इसका प्रतीक या वाचक कहा गया है... बृहदारण्यक उपनिषत् में याज्ञवल्क्य एवं मैत्रेयी के संवाद में भी आत्मा के सम्यक् ज्ञानमनन-चिन्तन एवं निधिध्यासन की बात की गयी है तथा इससे ही परमतत्त्व के ज्ञान को भी संभव बतलाया गया है -
आत्मा वा अरे श्रोतव्या मन्तव्या निदिध्यासतव्या...............इन सृष्टि में अनुस्यूत है ब्रह्म .. संसार का अधिष्ठापन ही ब्रह्म नाम से श्रुतियों द्वारा प्रतिपादित है.. जो था, जो है और जो सदैव रहेगा- वही तो ब्रह्म है.. सत्यनाम से ऋषियों-मनीषियों द्वारा वही कहा जाता है..
यहां मिथ्या शब्द असत् से भिन्न है.. मिथ्या शब्द यहां प्रतीति होनेवाली वस्तु सत्य सी लगती है जबकि वह प्रतीति क्षण में नहीं.. यही मिथ्यात्व है.. इसमें संस्कारों तथा उसके परिणाम स्वरूप स्मृति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है..
संसार के अस्तित्व को स्वीकार करने पर ही जीव है.. संसार की संसार के रूप में प्रतीति के नष्ट होते ही ‘जीव’ का अस्तित्व समाप्त हो जाता है.. यह ऐसे ही है जैसे जागने पर स्वप्नकाल के द्रष्टा और दृश्य का को लोप हो जाता है..वस्तुत: यह एकत्व और अद्वैत ही परमार्थ है....सत्य का अर्थ है- जिसका तीनों कालों में बोध नहीं होता अर्थात् जो था, जो है और जो रहेगा..
इस दृष्टि से जगत् ब्रह्म-सापेक्ष है.. ब्रह्म को जगत् के होने या न होने से कोई अंतर नहीं पड़ता.. जिस प्रकार आभूषण के न रहने पर भी स्वर्ण की सत्ता निरपेक्ष भाव से रहती है, उसी प्रकार सृष्टि से पूर्व भी सत्य था.. दूसरे शब्दों में, ब्रह्म का अस्तित्व सदैव रहता है... श्रुति का वचन है- सदेव सोम्येदग्रमासीत् अर्थात् हे सौम्य .. सृष्टि से पूर्व सत्य ही था..
वेदांत ग्रंथों में व्यावहारिक दृष्टि से ब्रह्म के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए ईश्वर को कारण-ब्रह्म और जगत् को कार्य-ब्रह्म कहा गया है..
ब्रह्म का चिंतन - इस सृष्टि में मानव देह की उपलब्धता सर्वोत्कृष्ट मानी गई है.. मनुष्य जीवन की प्राप्ति परमेश्वर के अनुग्रह का ही फल है जिसने सम्पूर्ण सृष्टि का सृजन किया है.. इस संसार में मनुष्य जन्म से ही दो तरह की अनुभूतियों से परिचय होता है- सुख और दुख.... सुख-दुख के विषय में विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे निश्चित रूप से जीवन में आई परिस्थितियों से जुड़े रहते हैं.. परिस्थिति अनुकूल होती या प्रतिकूल.. अनुकूल परिस्थितियों से सुख मिलता है जबकि प्रतिकूल परिस्थितियों से दुख की प्राप्ति होती है..
मनुष्य के कल्याण एवं भगवत्प्राप्ति के साधन हेतु अनुकूल परस्थितियों की अपेक्षा प्रतिकूल परिस्थितियाँ अधिक उत्तम सिद्ध होती हैं... अनुकूल परिस्थितियाँ होने पर मनुष्य भौतिकता में फंस जाता है... लेकिन प्रतिकूल परिस्थिति आने पर ऐसी संभावना लगभग नहीं रहती तथा मन परमपिता परमात्मा के चरणों में लगने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है...
प्रतिकूल परिस्थितियाँ आने पर मानव को प्रभु का अनुग्रह मानना चाहिए क्योंकि यह कृपा केवल उन्हीं पर बरसती है जिन पर उनका विशेष स्नेह होता है... प्रतिकूल परिस्थितियों से घिरने पर व्यक्ति को विशेष सावधानी रखनी पड़ती है... प्रतिकूल परिस्थितियों से घिरने पर व्यक्ति को विशेष सावधानी रखनी पड़ती है, क्योंकि ऐसे समय में सबसे पहले धैर्य, फिर मित्रादि सभी साथ छोड़ने लगते हैं.. यदि ऐसी स्थिति में मनुष्य विचलित होने लगे तो उसका मनोबल टूटने लगेगा.. परन्तु यदि प्रभु पर विश्वास रखते हुए इनका सामना किया जाए तो मनुष्य का आत्मिक विकास होगा, ब्रह्म के चिंतन में वृद्धि होगी, दुष्प्रवृत्तियों से गुजरने वाला व्यक्ति वैसे ही सफल होकर निकलता है जैसे तपने के पश्चात् सोना अधिक चमकदार हो जाता है..लेकिन जिज्ञासा तो अब भी सहज बनी रहती है की ब्रह्म क्या है ? सभी का मानना है कि बिना किसी संतुलित संचालन व्यवस्था के यह संपूर्ण ब्रह्मांड इतने सुव्यवस्थित रूप से नहीं चल सकता.. यह सर्वोच्च नियामक सत्ता वैदिक दर्शनों में ब्रह्म है...आद्य शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित अद्वैतवाद के अनुसार इस संपूर्ण जगत में जो कुछ भी इंद्रियों द्वारा गृहीत है अर्थात् जो कुछ भी दिखाई, सुनाई, सुंघाई या स्पर्श आदि में आता है; वह सब मात्र ब्रह्म ही है.. इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं..जिस प्रकार मिट्टी से निर्मित पात्रों का अलग-अलग नाम-रूप होने के पश्चात् भी मूल रूप मिट्टी ही होती है, इसी प्रकार जो भी जड़ अथवा चेतन तत्व विभिन्न नाम-रूप से ज्ञात होते हैं; वे मूल रूप से ब्रह्म ही हैं... भौतिक विज्ञानी आइंसटीन के नियम के अनुसार इसे पूरे ब्रह्मांड में द्रव्य या ऊर्जा है.. यह दोनों भी आपस में परिवर्तनशील हैं अर्थात् जो द्रव्य या ठोस पदार्थ हमें दिखते हैं; वे भी ऊर्जा से निर्मित हैं और सभी ठोस पदार्थ अंतत: ऊर्जा में ही परिवर्तित हो जाते हैं.. अत: इस पूरे ब्राह्मंड में ऊर्जा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है.. अध्यात्म विज्ञान में यही ऊर्जा ब्रह्म है.. हम ‘ब्रह्मांड’ शब्द का प्रयोग इसलिए करते हैं कि यह सर्वव्याप्त ब्रह्म से परिपूर्ण एवं अंडाकार है..
खगोल विज्ञानियों के अनुसार ब्रह्मांड की उत्पत्ति पूर्ण ऊर्जा एवं धूल के कणों में महाविस्फोट से हुई है.. कालांतर में इसी से आकाशगंगाएं, नक्षत्र, तारे एवं ग्रह आदि बने.. सूर्य के विखंडन से संपूर्ण सौरमंडल अस्तित्व में आया.. अध्यात्म विज्ञानी इस सृष्टि की उत्पत्ति नाद से मानते हैं, जबकि खगोल विज्ञानी विस्फोटक से मानते हैं, अर्थात् सभी ग्रहों या पृथ्वी पर जो कुछ भी जड़-चेतन तत्त्व है; वह सूर्य या ब्रह्मांड के मूल तत्त्व से ही बना है... परन्तु नाम-रूप में भिन्नता होने पर भी मूल तत्त्व एक ही है और वह ब्रह्म है...
दर्शन शास्त्रों में ब्रह्म के संदर्भ में एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति कहा गया है...मृत्योपरांत चेतन तत्व द्वारा शरीर को छोड़ने के पश्चात जड़ तत्त्व प्रकृति में विलीन हो जाता है... ब्रह्म को निर्लिप्त, निराकार, निर्विशेष तथा निर्विकार आदि कहा गया है... अध्यात्म शास्त्रियों ने इस ब्रह्मांडीय ऊर्जा के तीन गुण बताए हैं.. इसमें सत् सत्य है, चित् चेतन है तथा आनन्द ब्रह्म स्वरूप है.. इसी को सच्चिदानन्द परमात्मा के रूप में जाना जाता है...इन्सान के मन-मस्तिष्क, दिलो-दिमाग पर अपनी सत्ता कायम करने वाले अनदेखे अनजाने उस ब्रह्म कि मै बात कर रहा हूँ , जो है भी और नहीं भी है? ब्रह्म नहीं है :- क्यों कि मैंने उसे देखा नहीं है, उसका आकर क्या है, प्रकार क्या है, दिखता कैसा है, रंग क्या है ? आज के पढ़े-लिखे इन्सान यकीन तब ही करता है जब उसे देखता है, छुकर उसे महसूस करता है बिना जाने समझे वह किसी भी मनगढ़ंत बातों पर यकीन नहीं करता... वह प्रयोगवादी है और प्रयोग कर सत्य जानने कि कोशिश करता है.. इसी सत्य कि खोज़ में आज का मानव आकाश, पाताल और धरती पर अपनी खोज़ जारी रखी है... इस सत्य कि खोज़ का अंत कहाँ है यह भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है, और इन्सान भविष्य नहीं जान सकता ? जब से इस पृथ्वी पर इंसान कि उत्पत्ति हुई है उसी समय से वह सत्य कि खोज में लगा हुआ है, वह सत्य कि जब एक तार को छेड़ता है तो अनगिनत तरंगे प्रतिध्वनित होती है... अब इन्सान उन अनगिनत तरंगो कि खोज़ शुरू करता है जब उसको सुलझाने के करीब पहुंचता है तो फिर कोई और तरंगे प्रतिध्वनित होती है और खोज़ दर खोज़ यह सिलसिला चलता ही रहता है, चलता ही रहता है ……. यानि वृत्त के छोर को खोजना.. यह कब तक चलेगा, इसका अंत कहाँ है.. इसका जवाब किसी के पास नहीं है ? यह एक अंतहीन सिलसिला है..
ब्रह्म है :- मैंने उसे नहीं देखा है, लेकिन हर पल उसकी उपस्थिति का एहसाश होता है.. शायद वह निराकार है, स्याह अँधेरी काली रात कि तरह जिसमे अपनी आँखों के प्रतिविम्ब नज़र आते है, जिसमे कुछ भी दिखाई नहीं देता है सिर्फ अनुभव किया जा सकता है.. उसकी विशाल सत्ता में नील गगन, नछत्र, तारे, सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी, वायु, अग्नि, जल है.. मानव शारीर का निर्माण भी पांच तत्वों से हुआ है :- अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी और आकाश। उसकी सत्ता में जीवन है मृत्यु नहीं है क्यों कि आत्मा अजर-अमर है, इसे कोई भी शक्ति मिटा नहीं सकती है, विनाश होता है तो केवल शारीर का, और यह शारीर फिर उन्ही पांच तत्वों में विलीन हो जाता है.. यह अंतहीन सिलसिला चलता ही रहता है.. उसके साम्राज्य में जीवन कहाँ-कहाँ है आज का विज्ञानं या मानव उसे नहीं ढूढ़ पाया है.. हमारे भारतीय पूर्वजों या ऋषि मुनियों ने पौराणिक पुस्तकों में बहुत से लोक का जिक्र किया है जैसे:- शिवलोक, ब्रम्ह्लोक, विष्णुलोक, इन्द्रलोक, मृत्युलोक और न जाने कौन-कौन से लोक है इस ब्रह्मांड में जहाँ जीवन है... विज्ञानं इस खोज में लगा है, हो सकता है कल दूसरी दुनियां खोज ली जाय, जैसे कि रामसेतु का होना या द्वारिकापुरी का होना पौराणिक पुस्तकों में ही था जब नासा के वैज्ञनिको ने रामसेतु का फोटो और द्वारिकापुरी कि खोज पूरी दुनियां के सामने लाया तब लोगों ने यकीन किया.. वैसे ही जब कोई दूसरी दुनियां ख़ोज ली जाएगी तब लोग यकीन करेंगे, जब कि हमारे भारतीय ऋषि-मुनियों ने हजारो साल पहले ही दूसरी दुनियां खोज ली थी... पौराणिक पुस्तक में ही सात सूर्य का जिक्र किया गया है जब कि एक ही सूर्य को विज्ञानं आज तक जान पाया है.....
हम सभी मानव, जीव-जंतु, पेड़-पौधा मृत्युलोक के वासी है और मृत्यु ही सत्य है.. अगर हम अपने पुरे जीवन कि गड़ना करे तो पाते है कि २३००० से २५००० दिन भी नहीं जी पाते है इस मृत्युलोक में और इसी २३००० दिनों में बचपन, जवानी और बुढ़ापा सब देख लेते है फिर इस शरीर का अंत हो जाता है... उस ब्रह्म के रचे लीलाओं में से फिर कोई नया पात्र बनकर फिर से कोई नया जीवन जीते है.. यह सिलसिला चलता ही रहता है, जबतक यह सृष्टि है.. उसकी सत्ता में न कोई धर्म है न कोई जाती है और नहीं उंच-नीच का भेद-भाव... यह मानव मस्तिष्क कि विकृति है जो इस मृत्युलोक में धर्म, जाती और उंच-नीच बाँट दिया है... उस अनजाने ब्रम्ह के अनेको नाम है जिसे धर्म के हिसाब से नाम दिए गए है जैसे – ईश्वर, अल्लाह, जीजश
उसकी उपस्थिति हर जगह है आप यकीन करे या नहीं करे ? यकीन करना या नहीं करना यह आपके ऊपर निर्भर करता है.... अगर इस पृथ्वी पर जीवन है तो ब्रह्म भी है.....

Sunday, September 13, 2015

लक्ष्यविहीन जीवन जीने का क्या फायदा ?

माननीय मित्रों आज अचानक मेरे मन में एक ख्याल आया की आदमी पैदा होता है और आदमी मर जाता है, उसके साज़-सामान, महल, स्मारक , सपने सब टूट-फूट जाते हैं, परन्तु कीर्ति ऐसी वस्तु है जो युगों तक जीवित रहती है ...
जिसने सर्वस्व देकर यश कमाया, उसने बहुत अच्छा व्यापार किया टूटी - फूटी झोपड़ी को बेचकर एक पक्का मकान खरीद लेना बुद्धिमानी है .. वे महान आत्मा हैं, जो अपना जीवन उज्जवल कीर्ति कमाने में लगाते हैं .....
उन अभागों के पैदा होने से क्या लाभ, जो जीवन भर पेट भरते रहे और अंत में कुत्तों की मौत मर गए ..
जिन्हें अपने भविष्य की चिंता नहीं और स्वार्थ की परिधि से आगे कुछ नहीं देख सकते, वे मुर्दे हैं, भले ही वे सांस लेते, खाते-पीते और चलते फिरते दिखाई देते हों...
मूर्ख लोग धन जमा करके रख जाते हैं, ताकि पीछे वाले चंद लोग खाएं और खुश रहें .. कितना अच्छा होता यदि वे अपने सामने ही सत्कर्मों में उसे लगाते ताकि वह श्रेष्ठ भूमि में उगता और अपनी छाया में असंख्य प्राणियों को शान्ति देता .. ..
बेवक़ूफ़ उसे कहते हैं जो फायदे की चीज़ को फेंक देता है, और हानि करने वाली वस्तुओं को अपनाता है ... जो कड़वी और अनर्गल बातें अपनी जिव्हा से बकते हैं, उन्हें बेवकूफ के अलावा और क्या कहा जाए ? कोई आदमी कितना ही पढ़ा-लिखा और चतुर क्यों हो,यदि वह भलाई को छोड़कर बुराई अपनाता है, तो उसे पहले सिरे का मूर्ख समझना चाहिए..... 

अतः मैंने अंत में यह निर्णय किया की मैं मूर्ख कहलवाने की बजाय अपने दिमाग में आये इन विचारों को जीवन में आत्मसात करके इनका अनुशरण करूँ...देखिये जिन महापुरुषों ने कुछ भी मानवता के हित में अच्छा किया है , क्या हम या हमारी आने वाली पीढ़ी भूल पायेगी .. यह भी ध्यान देने लायक है की जिन्होंने मानवता के लिए कुछ नहीं किया सिर्फ पैदा हुए , कमाए खाए और मर गए क्या वो हमें याद हैं... उन्हें याद रखना संभव ही नहीं है .. कैसे याद किया जाय उन्हें और क्यों ? अगली पीढ़ी के सामने भी यही सवाल होगा की हमने क्या किया और क्यों याद किये जाएँ .. मैंने तो निश्चय कर लिया है की मैं तो कुछ ऐसा करूँगा जिससे मुझे अगली पीढ़ी याद रखे ? आप लोगों की आप जाने .. इसे आप मेरा स्वार्थ समझें या कुछ और लेकिन मुझे लग रहा है, की अगर हमें अगली पीढ़ी को कुछ बताना है, तो उदहारण नहीं उदाहरण स्वरूप बनना होगा....हाँ अगर आप लोगों का भी सहयोग मिल जाय तो आनंद जाए .. मेरा मानना है , की जहां चाह होगी वहाँ राह मिल ही जायेगी , क्योंकि यह प्रकृति का नियम है की आवश्यकता आविष्कार की जननी है.. लक्ष्यविहीन जीवन जीने का भी क्या फायदा ..ऐसे जीवन का क्या लाभ जो राष्ट्र , धर्मं और मानवता के काम आये ... अंत में सिर्फ इतना कहूंगा की आप लोगों से विनम्र निवेदन है की इस विषय पर चिंतन जरुर कीजियेगा , अगर अच्छा लगे तो आत्मसात कीजियेगा और अच्छा लगे तो परित्याग कर दीजियेगा , अपनी - अपनी मर्जी है , प्रणाम ..

Saturday, September 12, 2015

वास्तविक उन्नति

क्या हम वास्तव में उन्नति एवं विकास कर रहे है,इस बारे में थोडा भ्रम है , इसे समझना जरुरी है, हम भले ही अंतिरक्ष में पहुच गए हो, भले हमारे कदम चंद्रमा पर हो लेकिन हमारे कदमो तले की ज़मीन खिसक रही है और इसका हमें पता भी नहीं चल रहा है. 
 एक तरफ तो हम विकास कर रहे है लेकिन दूसरी तरफ दुगनी तेजी से हमारा ह्रास हो रहा है. क्या ये विकास है? हमारी सभ्यता और संस्कृति जो हमारा अभिमान और बल था, उसे हम भूलते जा रहे है. क्या यह हमारा नैतिक पतन नही है? 

अब हम डॉक्टर, इंजिनियर, शिक्षक इसलिए नही बनना चाहते की हम देश एवं राष्ट्र की सेवा करना चाहते है, हम अपने राष्ट्र को मजबूत शिक्षित और स्वस्थ समाज देना चाहते है बल्कि उसमे हमें अच्छा पैकेज नज़र आता है. क्योकि इसमें हमारी कमाई अच्छी होती है इसलिए हम इससे जुड़ना चाहते है.

अब बाप अंपनी बेटी की शादी अच्छे लड़के से नही बल्कि अच्छी कमाई वाले लड़के से करते है. भले ही लड़का शराबी हो, जुआरी हो या फिर उसका आचरण ठीक ना हो. इससे उनको कोई फर्क नही पड़ता ,भले उनकी बेटी को बाद में दुःख दे इन से भी उनको फर्क नही परता क्योकि उनके लिए पैसा सब कुछ है आचरण या उनकी बेटी की खुशी कुछ भी नही ये हमारी उन्नति है हम अपने इतिहास, अपने बुजुर्गो के बारे में नही जानते, उनकी इज्जत नही करते, क्या ये हमारी उन्नति है?

हमारी शिक्षा विश्व में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती थी. लेकिन जिस तरह से हमारी शिक्षा के स्तर में गिरावट आयी है. क्या ये हमारी उन्नति है?
 पहले भारत एक राष्ट्र था लेकिन अब ये बहुत सारे खंडों का समूह है पहले हम हिन्दुस्तानी हुआ करते थे अब हिंदू , जैन , बौद्ध , सिक्ख आदि हो गए है और अब हमने और उन्नति करली..
हम युवा -बुजुर्ग, दलित – महादलित हो गये आशा है की अब आगे और भी उन्नति करेंगे हमारी सबसे बड़ी कमी यह है की हम विकास को ईट, पत्थर एवं आंकड़ों से तौलते है जो की हमारे लिए बहुत ही घातक है जिस तरह से हमारा नैतिक पतन हो रहा है ये देश और समाज के लिए बहुत ही गंभीर है..

हमारी जितनी भी समस्या है सब का कारण हमारा चारित्रिक और नैतिक पतन है. हमें विकास और वास्तविक विकास में फर्क पता होना चाहिए. वास्तविक उन्नति ये नही है की हम अपना नैतिक पतन करले. और सिर्फ पैसे कमा लें और अपनी हित के बारे में सोचे बल्कि हम अपने आने वाले भविष्य  के लिए किस तरह का समाज दे कर जा रहे हैं यह तो सोचें .

 हम सही मायने में विकसित तभी हो सकते हैं जब हम स्वयं यह सुनिश्चित करलेंगे की हमारे लिए राष्ट्रहित और समाज-हित ही सर्वोपरि है....