Sunday, July 3, 2011

सत्यता

जब हम सत्य को त्याग देते हैं, वास्तविकता से मुँह चुराते हैं, तब दरअसल हम खुद से दूर भाग रहे होते हैं...

सत्य स्वयं में हमारा स्वभाव है.. सत्य केवल उसी मन में, स्थिति में ही प्रकट होता है जब हमारी समस्त जानकारियाँ अनुपस्थित होती हैं, हमारा ज्ञान जब कायरत नहीं होता.. मन ज्ञान का स्थान है, वह ज्ञान का अवशेष है.. जब वह स्थान समस्त ज्ञान से रिक्त होकर शून्य होता है, देखा-सुना जब छूट जाता है तब उस स्थिति में भी जो अज्ञान सामने आता है, वह सत्य को जन्म देने में समर्थ होता है.. हमें मन के लिए अपने प्रति, अपने सचेत तथा अचेत अतीत के अनुभवों के प्रति अपनी क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के प्रति सचेत होना अनिवार्य है.. आप किसी दूसरे के द्वारा सत्य को प्राप्त नहीं कर सकते..

सत्य जड़ वस्तु, स्थान या प्रतिक्रिया नहीं है, तत्काल उपलब्ध होने वाला कोई भावनात्मक रूप भी नहीं है.. सत्य चेतन, सजीव, गति पूर्ण, सतर्क, स्फूर्त है.. जब मन सत्य की खोज करता है तब वह परम्परागत प्रणाली, प्रक्रियाओं और पूर्णवर्ती धारणाओं का पालन कर अपने अंदर की चीज को बाहर देख रहा होता है.. मन सत्य को खोजते हुए अत्मसंतोष को प्राप्त कर लेता है.. अंततः आदर्श आत्मसंतोष के कारण मन वास्तविकता को नहीं वरन उस अवास्तविकता को ही स्वीकार कर लेता है, जो मिथ्या है..
वास्तविकता वही है जो वास्तव में है, इसका विपरीत नहीं.. समस्त ज्ञान के लीन होने पर शाश्वत अनुभूति में एक मिठास का अनुभव होता है.. उसी आदत में सत्य है.. हम केवल ज्ञान के विषय में ही सोच पाते हैं, ज्ञान के पीछे ही दौड़ते हैं.. जब मन ज्ञान, उनके परिणामों और क्रिया-प्रतिक्रियाओं से आहत नहीं होता है.. समस्या यह है कि हममें अवास्तविक क्या है ? लेकिन इस समस्या से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं.. समस्या का यथावत अवलोकन करने पर समाधान निश्चित है.. प्रत्येक समस्या स्वयं में समाधान रखती है और ऐसी कोई पहेली नहीं है जिसका हल न हो.. प्रत्येक सामने आ खड़ा होने वाला प्रश्न स्वयं में उत्तर छिपाए बैठा होता है..
मैं क्या हूं, कौन हूं, इसके प्रमाण के लिए दूसरों की क्या आवश्यकता ? स्वयं के प्रमाण के लिए अन्य प्रमाण कोई औचित्य नहीं रखता....मैं खुद ही प्रमाण हूं...प्रमाण खोजने के लिए हमें जिनका आश्रय लेना होगा वे स्वयं अप्रमाण सिद्ध होंगे..
इसी प्रकार सत्य स्वयं में सरल और आनंदप्रद है.. जब हम सत्य को त्यागकर अन्य मुखौटे धारण कर लेते हैं, तब हम स्वयं से दूर भाग रहे होते हैं.. हमारी कठिनाई यह है कि हम यह जाने बिना कि हम अवास्तविक को क्यों प्रस्तुत कर रहे हैं, हम अवास्तविकता को प्रस्तुत करते हैं, यह हमारी विवशता है और सहज में ही हम अपनी सच्ची स्वाभाविकता नष्ट कर लेते हैं.. हमें इस दोहरे जीवन से बचना चाहिए..

अनेक विचारधाराएँ, चिंतन एवं प्रकृति सतत हमें बाहरी व्यक्तित्व को चमकाने, सुसंस्कृत करने तथा इसी के साथ उलझे रहने के लिए प्रेरित करती रहती हैं, जबकि हम स्वयं कुछ और चाहते हैं...हम गहराई में उतरकर अपने धारण किए मुखौटे के पीछे के भीतरी व्यक्ति को पहचाने और उसके वास्तविक स्वभाव को देखें.. इस प्रक्रिया में जब आप मन के उठने और लीन होने पर अपने ध्यान को केन्द्रित करके अन्तर्मन में झांकते व्यक्ति को वस्त्रहीन कर देंगे, तो निरोध घटित हो जाएगा और आप अंतर्मन का दर्शन करते व्यक्ति को अर्थात् स्वयं को उपलब्ध हो सकते हैं...