Monday, November 2, 2020

उपनिषद विद्या औऱ आधुनिक धर्म निरपेक्ष शिक्षा का अन्तर


भारत के क्रमबद्ध ज्ञान सृजन की कहानी वेदों से शुरू हुई....अर्जन में उसके पहले के लोगों से चली आती ज्ञान परम्परा का भी ख़्याल रखा ही होगा ऋषियों ने और शायद इसीलिये स्रजनकर्ताओं ने अपने नाम का कहीं ज़िक्र नहीं किया। आज के उपलब्ध चारों वेद को रूप देने के बाद भी नई पीढ़ी के ऋषियों ने उस ज्ञान को  अपने अनुसंधानों से पोषित किया....उन ज्ञानी ऋषियों ने अपने बारे न कुछ लिखा, न अपने शिष्यों को बताया और यही क्रम शतियों तक चलता रहा....
कल राकेश से बातचीत के सिलसिले में जब विषय आया किस तरह की शिक्षा की बात हमारे ऋषियों ने की. हाँ, वेदों के समय से कुछ ऋषि जहां जीवन सत्य की खोज में लगे जो आज विश्व द्वारा प्रशंसित है, वहीं कुछ अन्य खगोल एवं गणित विज्ञानों भी हज़ारों साल पहले पहुँचे जैसे सुलभशास्त्र, शून्य एवं अनन्त आदि से पता चलता है।पर लगता है उन्हें पराविद्या होने के कारण इतनी प्रसिद्धि नहीं मिली।

मंडूकोपनिषद् में बहुत साफ़ साफ़ दो तरह की विद्या का ज़िक्र है- परा विद्या एवं अपरा विद्या, जो यह भी बताता है कि उस समय में विद्या का क्षेत्र कितना बड़ा होता जा रहा था.
मंडूकोपनिषद् का श्लोक है: तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्शा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति।
अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते ॥१.५॥ मंडूकोपनिषद् 
उसमें अपरा है, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द तथा ज्योतिष। और परा विद्या वह है जिससे 'अक्षर तत्त्व' का ज्ञान होता है। ‘अक्षर तत्त्व’ अध्यात्म ज्ञान है, जो  उस महत् ज्ञान को कहा गया है जिससे अमृतत्व पाया जा सकता है और सब दुखों से मुक्ति...। 
सोचने की बात है कि वेदों की विद्या को भी अपरा कहा गया जिसे आज सेक्यूलर शिक्षा या आधुनिक शिक्षा कहा जाता है। 

पर सबसे पुराने उपनिषदों में एक ईशोपनिषद् में प्रणेता ऋषि ने इसका खुलासा किया है कि दोनों विद्या एक दूसरे की पूरक हैं। यहाँ विद्या परा-विद्या ‘विद्या’ हैं एवं अपरा-विद्या ‘अविद्या’। 
श्लोक है: 
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभ्य सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वाऽमृतमश्नुते ॥११
जो तत् को इस रूप में जानता है कि वह एक साथ विद्या और अविद्या दोनों है, वह अविद्या से मृत्यु को पार कर विद्या से अमरता का आस्वादन करता है।
आज भी सफल सुखमय, शान्तिमय सांसारिक जीवन के लिये आध्यात्मिक विद्या की नींव पर आधुनिक विद्या पाना ज़रूरी है। इसीलिये ऐसी ही शिक्षा व्यवस्था की ज़रूरत है और होनी चाहिये। हमने आध्यात्मिक शिक्षा से जीवन में नैतिकता के मूल्यों को भूला दिया संविधान के ‘सेक्यूलर’ शब्द की परिभाषा ठीक से नहीं देने एवं समझने के कारण । ‘भारत माता’, या ‘वन्देमातरम्’ सेक्यूलर नहीं रहा, फिर रामायण रचयिता तुलसीदास, कबीर, रैदास,रसखान को कैसे रखा जाये हमारे स्कूल की शिक्षा में । उपनिषदों को कौन सेक्यूलर (धर्म-निरपेक्ष)कहने देगा आज के राजनीतिक माहौल में जहां सभी जीवन मूल्य वोट की तराज़ू पर तौला जाता हो...। जब ब्राह्मण असुरों के कार्यों को श्रेष्ठ मानने लगे हैं एवं उसके लिये वे शूद्र बनने पर तैयार हैं एवं शूद्र और अन्य पिछड़ी जातियाँ रैदास या अन्य संतों को नहीं, शवरी, निषाद्, या केवट को नहीं आज के स्वार्थी नेताओं को न समझ उन्हें ही भगवान माँगने लगी हैं। अल्प संख्यक न कबीर रसखान, रहीम या साँई बाबा को नहीं मानते अपने धर्म के ठेकेदारों की बात मानते हैं....पर जो इसके बारे में कोई राय जानना चाहते हैं वे श्री. M के नाम से प्रसिद्ध श्रध्येय मुमताज़ अली खान के उपनिषदों की किताबों एवं व्याख्यानों से क्यों नहीं कुछ सीखते...
विवेकानन्द ने बराबर यही प्रतिपादित किया। देश कब तक यह धर्म निरपेक्षता का पासा खेलते हुए देश के महाभारत युद्ध को ख़त्म ही नहीं होने देता...धर्म, जाति, रंग, प्रदेश, भाषा के नाम से जोड.....क्यों नहीं हम देशवासी भारतीय उपनिषद् के इन श्लोकों से सीख ले सकते....
यस्तु सर्वानि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति ।
सर्वभूतेषु चात्मान ततो न विजुगुप्सते ॥६॥
जो सभी जीवों में अवस्थित आत्मा को अपनी आत्मा से अलग नहीं मानता, जो अपनी आत्मा को सभी में देख सकता है वह कैसे एक दूसरे से घृणा या दुश्मनी कर सकता है.....
The Wise man, who realizes all beings as not distinct from his own Self, and his own Self as the Self of all beings, does not, by virtue of that perception, hate anyone.
यस्मिन्सर्वानि भूतानन्यात्मैवभुद्विजानतः ।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥७॥
जो सभी में स्थित आत्मा को अपनी ही आत्मा की तरह जानता समझता है, कैसे अंधकार या शोक में रह सकता है।
What delusion, what sorrow can there be for that wise man who realizes the unity of all existence by perceiving all beings as his own Self?’
सभी उपनिषदों ने इसे बार बार दुहराया और भगवद्गीता भी...अगर दुनिया के लोग समझ जाते यह उपनिषद्ज्ञान, यह पूरे विश्व का कल्याण कर देता केवल भारत ही क्यों?
कहीं कोई भूल दिखती है तो कृपया बताने की कृपा करें, पर पहले समझने की कोशिश करें....
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