Wednesday, December 30, 2020

"हनुमान जी की प्रतिज्ञा


´´र´´ कार का अनुसंधान करके तो देख। पूर्वकृत कर्मों का नाश न कर दूं तो कहना।।
राम नाम को अपने ध्यान में बसाकर तो देख। तुझे मूल्यावान न बना दूं तो कहना।।
´´ अ´´ कार का अनुसंधान करके तो देख। अन्त:करण का अन्धकार न मिटा दूं तो कहना।।
राम नाम का मनन करके तो देख। ज्ञान के मोती तूझ में न भर दूं तो कहना।।
´´म´´ कार का अनुुसंधान करके तो देख। अमृतानन्द की वर्षा न कर दूं तो कहना।।
राम नाम को सहारा बना कर देख। तुम्हें सबकी गुलामी से न छुड़ां दूं तो कहना।।
´´र´´ ´अ´ ´म´ को मिलाकर ´राम´ लिख। जीवन मरण से मुक्त न करा दूं तो कहना।।
रामनामानुराग में आँसू बहा कर तो देख। तेरे जीवन में आनन्द की नदियां न बहा दूं तो कहना।।
राम नाम लिखना तो सिखो। कहां से कहां न पंहुचा दूं तो कहना।।
राम नाम का प्रचारक बन के तो देख। तुझे किमती न बना दूं तो कहना।।
जप मार्ग पर पैर रख कर तो देख। तेरे लिये सब मार्ग न खोल दूं तो कहना।।
भक्तिमयी राहों पर चलकर तो देख। तुझे शान्ति दूत न बना दूं तो कहना।।
राम नाम के लिये खर्च करके तो देख। कुबेर के भण्डार न खोल दूं तो कहना।।
राम नाम पर खुद को न्यौछावर करके तो देख। पूरा संसार न्यौछावर न कर दूं तो कहना।।
राम नाम सुन के सुना के तो देख। कृपा और कृपा न बरसा दूं तो कहना।।
´´राम´´ नाम का लिखित जप करके तो देख। माया से मुक्त न करा दूं तो कहना।।
राम नाम की तरफ हाथ बढ़ाकर तो देख। दौड़ कर गले न लगा लू तो कहना।।
राम नाम का तू बन के तो देख। हर एक को तेरा न बना दूं तो कहना।।

Saturday, December 26, 2020

हिन्दुत्त्व का पतन का कारण

क्या हम हिन्दू ही हिंदुस्तान को इस्लामिक देश बनाना चाहते हैं? 

क्योंकि आजकल सोशल मीडिया पर बहुत से पोस्ट पढ़कर ऐसा ही प्रतीत हो रहा है। 

मैं हिन्दू धर्म के अनुयायियों एवं धमर्गुरुओ और धर्म के तथाकथित ठेकेदारों से यह प्रश्न करना चाहता हूँ।

विश्व में ईसाइयो के 80 देश और मुस्लिमों के 56 देश हैं,लेकिन सबसे पुरानी सनातन सभ्यता वाले हिंदुओं का देश क्या सिर्फ एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बन कर नही रह गया है? 

क्या हिंदू अपने हित की बात कहे तो वो सांप्रदायिक और अगर कोई मुस्लिम तुष्टिकरण करे तो वो धर्मनिरपेक्ष हैं ?

क्या यह धर्मनिरपेक्षता का मात्र दिखावा ही नही है, कि एक खास धर्म का वोटबैंक हासिल करने के लिये देश की सबसे पुरानी पार्टी खुलेआम निकल पड़ी है, राजनीति के बाजार में, लेकिन हिंदू हितों की बात करने वाला कोई भी नहीं है हमारे देश में?

मेरा अपना मनना है अब भी जो हिंदू इस घमण्ड में जी रहे हैं कि प्राचीन काल से सनातन धर्म है, और इसे कोई मिटा नहीं सकता, तो इस गलतफहमी से जितना जल्दी हो सके निकल जायें, क्योंकि वोटबैंक के लिये सभी राजनीतिक दलों ने हिंदुओं का ही सदैव शोषण किया है, और अभी भी कर रहे हैं।

ऐसी परिस्थिति में क्या हम हिंदुओं को भी एक जुट होकर एक झंडे के नीचे आ जाना चाहिये?

हमें मिलकर इसी मुद्दे को राजनीतिक दलों के समक्ष में उठाना होगा कि भारत हिंदू राष्ट्र कब बनेगा? 

तभी राजनीतिक दलों को इस दिशा में सोचने पर मजबूर कर सकेंगे। 
हम हिंदुओं को भी जाति पाति का भेद मिटाकर एक हिन्दू वोट बैंक बनना होगा तभी हम अपनी मांग पूरी करवा सकेंगे। 
NOTA दबाकर या मोदी का विरोध करके तो कभी हिन्दू सशक्त हो सकते होते तो कब के हो गए होते। 

क्योंकि जैसी भी हो लेकिन वर्तमान परिदृश्य में भाजपा ही एक मात्र पार्टी है, जो हिंदुओं का अस्तित्व बचा पायेगी ऐसा दिखता है,और मोदी जी ही वो प्रधानमंत्री हैं जो हिंदू विरोधी ताकतों से निपट पाने में सक्षम प्रतीत होते हैं। 

यदि आपको मेरे बातों पर विश्वास नहीं होता कि हिंदु किस तरह पूरे संसार और देश में घट रहे हैं तो जरा इन आंकड़ों पर नज़र डालिये या इंटरनेट पर देख लीजिए।

पाकिस्तान-3 % हिंदू।
बांग्लादेश -8 % हिंदू।
अफगानिस्तान से हिंदु मिट गये।
काबुल जिसे श्रीराम के पुत्र कुश ने बसाया था वहां एक भी मंदिर नहीं, गांधार जहां की रानी गंधारी थीं, उसका नाम अब कंधार है और वहां एक भी हिंदू नहीं पाया जाता है।

कम्बोडिया जहां राजा सूर्यदेव बर्मन ने दुनिया का सबसे बड़ा अंकोरवाट मंदिर बनवाया वहां एक भी हिंदू का अवषेष भी नहीं बचा है।

बालीद्वीप में 20 - 25 साल पहले 90% हिंदू थे लेकिन आज सिर्फ 20 % बचे हैं।

कश्मीर घाटी में 20 साल पहले 50% हिंदू थे लेकिन आज नाम मात्र हिंदू वहां बचे हैं।

केरल में 10 साल पहले हिंदुओं की आबादी 60% थी लेकिन वहां अब मात्र 10 % हिंदू बचे हैं।

नॉर्थ इस्ट जैसे सिक्किम,नागालैंड,आसाम और पश्चिम बंगाल का हाल आपमें से किसी से छिपा नहीं है। 

यदि हम हिंदुओं को यदि अपनी आने वाली पीढ़ियों को भी हिन्दू ही बने रहना देखना है, तो हम एकजुट होना ही होगा अन्यथा भविष्य में हिंदू शब्द मात्र पुस्तकों में ही पाए जा सकेंगे, कि हिन्दू नाम की प्रजाति भी कभी इस देश में थी।

यह मेरी अपनी विचारधारा है, यदि आप लोगों के मस्तिष्क में हिंदुओं की सुरक्षा और अखंडता का और भी कोई उत्तम विकल्प हो तो कृपया अपने विचारों को प्रस्तुत करने की कृपा करें। धन्यवाद।

Monday, December 21, 2020

आज का युवा और धर्म

धार्मिक स्थलों और सोशल साइटों पर युवा वर्ग की लगातार बढ़ती भीड़ एवं धर्मं एवं राष्ट्रीयता की भावनाओं का आदान-प्रदान इस बात का प्रतक्ष्य प्रमाण है कि उनमें धर्मं एवं राष्ट्र के प्रति आस्था बढ़ रही है, लेकिन वे पाखण्ड के या झूठे वादों के झांसे में नहीं आना चाहते हैं और यह देखकर बहुत अच्छा लगता है की आज का युवा राष्ट्र एवं धर्मं के प्रति अपने नैतिक कर्तव्व्यों को समझने की शुरुआत कर चुका है बस आवश्यकता है की इसे अनवरत जारी रक्खे। आज का युवा यह चाहता है की आप उन्हें जींस छोड़कर धोती पहनने को मत कहिए और यह सही भी है , मैं स्वयं भी किसी को धोती या टोपी नहीं पहनाना चाहता हूँ और नहीं मै किसी को मंदिर जाके या घर में बैठ पूजा-अर्चना या जप-तप करने को कह रहा हूँ।
हाँ बस अपने राष्ट्र के युवा वर्ग को अपने इस लेख के माध्यम से सिर्फ इतना सन्देश प्रेषित करना चाहता हूँ की धर्मो की उत्पत्ति के पूर्व हमारे पूर्वजो ने जीवन की अत्यंत गहराईयों में जाकर कुछ नियम बनाये थे,जो की एक नित्यकर्म हुआ करता था और यही नित्यकर्म आगे चल कर धर्म बन गया।और इसी धर्म को हमारे तक पहुँचते पहुँचते बहुत सारे टुकडो में बाँट दिया गया,जिससे मूलभूत धर्मं और उसके आदर्शों का स्वरुप ही बदल गया. 
धर्म में आसक्ति/आस्था/विश्वास तो आज के आधुनिक दिखावे वाले युवा वर्ग को भी है। सब अकले-अकले भगवान का नाम जपते हैं ,सब एक दूसरे को यह दिखाते हैं कि "मुझे इस सब में कोई दिल्चस्पी नहीं है"। अब यदि मैं अपनी बात कहूं तो मुझे व्यक्तिगत रूप से धर्म में काफ़ी आस्था है। क्योंकि मेरा मानना है की धर्म, केवल धर्म नहीं, अपितु एक जीवन पद्धति है। यूं देखा जाय तो सृष्टि के हर तत्व का एक धर्म होता है। जैसे आग का धर्म है जलना, उसी प्रकार मनुष्य का धर्म है मानवता । 
मनुष्य को ईश्वर ने इतना बुद्धिमान तो बनाया है कि उसे बिना तर्क के किसी बात को नहीं मानना चाहिए। किन्तु फिर भी बहुत से व्यक्ति आसानी से गलत बातों को स्वीकार लेते हैं ।और कुछ मनुष्यों को आप कितना ही तर्क दे लें वो फिर भी अपनी बात मनवाने के लिए कुतर्कों का सहारा लेकर हमेशा व्याकुल रहते है। वास्तव में मानव बुद्धि बड़ी ही जटिल है, और वो वही मानना चाहती है, जैसे उसको संस्कार मिले हैं। यधपि वह चाहे सही हो या गलत, और कुछ बुद्धिमान लोग ही उन गलत संस्कारों को ज्ञान से नापते-तौलते हैं। अन्यथा बाकी मनुष्य तो सब भेड़-बकरियों कि तरह ही व्यवहार करते हैं। बुद्धिमान व्यक्ति को ऐसे लोगों के छल भरे कुतर्कों को समझना चाहिए। धर्मं मनुष्य को मनुष्यत्व के मूल भूत सिद्धांत जैसे की ब्रहमचर्य, ईश्वर ध्यान, समाधी, सज्जनों से प्यार, न्याय, दुष्टों को दंड, सभी जीवधारियों पर दया भाव आदि अनेक जीवन के सिद्धांतों के साथ-साथ, विज्ञान, गणित और जगत रहस्यों को समझाता या सिखाता है।परंतु मुझे तब बहुत दुख: होता है, जब धर्म के नाम पर ऊंच-नीच, छूत-अछूत, और पाखंड जैसी कुरीतियों से सामना होता है।

Sunday, November 29, 2020

अखंड हिंदुस्तान

बिखरे हैं यहाँ मोती, माला बनाए कौन।
नफरत की आंधीयों मे, दीपक जालाए कौन।। 

यादव कोई, दलित कोई, पंडित, कोई कहार।
इस जात पात ने किया हिन्दुत्व पर प्रहार।। 

सिख, है कोई मलयाली, गुजरात का कोई। 
झगड़ा कोई भाषा का, क्षेत्रवाद का कोई।।

हम भूल गए उसको, जननी जो हमारी है।
हम सब हैं लाल इसके, ये मात हमारी है।।

हम हिन्दू, हम हिन्दुस्तानी, धर्म सनातन एक।
एक डाल के हम सब पंछी, यही घरौंदा नेक।।

राष्ट्र धर्म की रक्षा मे, दुश्मन के शीश कुचल देंगे।
इतिहास की हस्ती क्या है, हम सब तो भूगोल बदल देंगे।। 

हिन्दू प्रचंड हों हिंदुस्तान अखंड हो, अब नारा यही हमारा है।
हम हिन्दू हैं, हम हिन्दी हैं और हिंदुस्तान हमारा है।।

Tuesday, November 17, 2020

धर्म का स्वरुप

धर्म का स्वरूप क्या है? धर्म का क्या महत्व है? क्या धर्म देश-काल के अनुसार बदलता है? ये सवाल हजारों सालों से पूरी दुनिया को परेशान करते रहे हैं। 

भारतीय संस्कृति में धर्म पर चिंतन कर सूक्ष्म विवेचन की परंपरा रही है। धर्म संपूर्ण जगत को धारण करता है, इसीलिए उसका नाम धर्म है। धर्म ने समस्त प्रजा को धारण कर रखा है। अत: जो धारण से युक्त हो, वही धर्म है।संसार में धर्म ही सबसे श्रेष्ठ है। 

धर्म में ही सत्य की प्रतिष्ठा है। मरा हुआ धर्म हमें मारता है और हमसे रक्षित धर्म ही हमारी रक्षा करता है। इसलिए धर्म का हनन नहीं करना चाहिए।

यही सनातन भारतीय चिंतन परंपरा है, जो मानव जीवन के चार पुरुषार्थो में धर्म को पहला स्थान देती है। धर्म ही वह पहली सीढी है, जिसके अगले सोपानों में अर्थ और काम से होते हुए मानव अपने जीवन के परमलक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। यह है " सनातन धर्म"।

मनुस्मृति में धर्म का स्वरूप उसके दस लक्षणों के माध्यम से बताया गया है -

धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिंद्रियनिग्रह:।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥

अर्थात धैर्य, क्षमा, संयम, अस्तेय (चोरी न करना), शौच (पवित्रता), इंद्रियों को वश में रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना - ये दस लक्षण हैं धर्म के और जिस मनुष्य में ये लक्षण हों, वही धार्मिक है। यही है सनातन धर्म का अनुयायी होना।

सन 1893 में स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में आयोजित विश्व धर्म महासम्मेलन में उपस्थित विश्व के सभी धर्मगुरुओं के समक्ष भारतीय संस्कृति की विजय पताका फहराई।

उन्होंने बार-आर भारतीय जीवनदृष्टि का मूल आधार धर्म को बताया। उनके शब्दों में, हमारे पास एकमात्र सम्मिलन-भूमि है - हमारी पवित्र परंपरा, हमारा धर्म। भारत के भविष्य संगठन की पहली शर्त के तौर पर धार्मिक एकता की ही आवश्यकता है। 

एशिया में और विशेषत: भारत में जाति, भाषा, समाज संबंधी सभी बाधाएं धर्म की इस एकीकरण शक्ति के सामने उड जाती हैं। धर्म ही भारतीय जीवन का मूल मंत्र है। हमारा धर्म ही हमारे तेज, हमारे बल, यहां तक कि हमारे जीवन की भी मूल भित्ति है। 

मैं एक ऐसे धर्म का प्रचार करना चाहता हूं, जो सब प्रकार की मानसिक अवस्था वाले लोगों के लिए उपयोगी हो; इसमें ज्ञान, भक्ति, योग और कर्म समभाव से रहेंगे। 

हमारा देश ही हमारा जागृत देवता है। देश के दरिद्रनारायण की सेवा ही सच्चा धर्म है। क्षुधातुरों को धर्म का उपदेश देना उनका अपमान करना है, भूखों को दर्शन सिखाना उनका अपमान करना है। 

इस प्रकार स्वामी विवेकानंद ने धर्म को सामाजिक विकास तथा मानवमात्र की सेवा से जोडकर उसे नया अर्थ प्रदान किया। ऐसा है हमारा "सनातन धर्म"।

धर्म कभी धन के लिए न आचरित हो, वह श्रेय के लिए हो, प्रकृति के कल्याण के लिए हो, धर्म के लिए हो। इसका अनुपालन करना है "सनातन धर्म"।

परंतु आज भौतिकता के इस दौर में धर्म के नाम पर कई जगह व्यापार शुरू हो गया है। 

आज कई ऐसे लोग आस्था-विश्वास के बाजार में आ बैठे हैं, जो शास्त्रों की मनमानी व्याख्या करते हैं। ढोंग-आडंबर का कपटजाल बिछाते हैं। आस्तिक एवं सीधे-सादे नागरिकों को फंसाते और अपने स्वार्थ साधते हैं। 

वास्तव में साधू शब्द का अर्थ है - जिसने अपनी इंद्रियों को साध (वश में कर) लिया हो ।

 महात्मा शब्द का अर्थ है- महान है जो आत्मा।

 गुरु शब्द दो अक्षरों - गु (अंधकार) और रु (मिटाने वाला) के मेल से बना है, अर्थात गुरु वह है, जो अज्ञान के अंधकार को मिटाकर ज्ञान के सही मार्ग पर ले चले, किंतु आज क्या स्थिति है, यह किसी से छिपा नहीं है।

स्वतंत्रता के बाद भारत में धर्म का जितना दुरुपयोग राजनीति ने किया, शायद ही किसी और ने किया हो। धर्म के नाम पर संकीर्ण सोच को बढावा देने, लोगों को एक-दूसरे के खिलाफ भडकाने जैसे घृणित कार्य किए गए। फिर भी अपनी निर्मलता और श्रेष्ठता को स्थिर रखे हुए है वह है, "सनातन धर्म"।

 कोई भी धर्म बैर भाव, घृणा, हिंसा आदि नहीं सिखाता। सभी धर्म प्रेम, भाईचारा, सद्भाव, सहनशीलता, मेलजोल की ही सीख देते हैं। 

सभी पर्व असत्य पर सत्य, अधर्म पर धर्म की विजय की ही गाथा गाते हैं, फिर भी हम आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षित समाज में धर्म के नाम पर हो रहे इन सारे छल, कपट, अन्याय, अत्याचार को बर्दाश्त कर रहे हैं? 

जरूरत इस बात की है कि हम स्वयं यह प्रण लें कि धर्म के नाम पर कट्टरता, कटुता, द्वेष-घृणा फैलाने वाली ताकतों के नापाक इरादों को कभी सफल नहीं होने देंगे तथा पूरे विश्व के सभी धर्मो को सम्मान देने वाली धर्म की धरा - भारतवर्ष को एक बार फिर से जाग्रत करेंगे। इस प्रतिज्ञा पर अडिग रहना सिखाता है, " सनातन धर्म"।

 हमारा सबका सनातन धर्म ही वास्तविक धर्म है, यह बात हम सब को समझनी होगी। तभी हमारे भारत से ही पुन: पूरे विश्व को शांति, अहिंसा, सदाचार का संदेश मिलेगा। यही अवधारणा है "सनातन धर्म की"।

 "प्राणी मात्र को निम्नतम से उच्चतम की तरफ अग्रसर करना" दैहिक, दैविक और भौतिक, मानसिक, वाचिक और क्रमिक हर तरह से सन्मार्ग की तरफ उन्मुख करना, सन्मार्ग के लिए प्रेरित करना। जो यह कार्य करने के लिए प्रेरित करे वह है,"सनातन धर्म"।
।।जयति सनातन धर्म।।

Tuesday, November 3, 2020

आध्यत्मिकता

 एक बात पानी से सीखी जा सकती है ; छोटी छोटी नदियाँ शोर मचाती हैं परन्तु महासागर शांत रहता है।
जो वेद और शास्त्र के ग्रंथों को याद कर लेता है , किंतु उनके यथार्थ तत्व को नहीं समझता, उसका वह याद रखना व्यर्थ है। 
जो बाहर की सुनता है बिखर जाता है, जो अपने अंदर की सुनता है सवर जाता है, और आध्यात्मिकता अंदर से आती है। – 
जिस दिन हमारा मन परमात्मा को याद करने, और उसमे दिलचस्पी लेना शुरू कर देता है उसी दिन से हमारी परेशानियाँ भी हम में दिलचस्पी लेना बंद कर देती हैं। इंसान बुरा तब बनता है जब वो खुद  को दूसरों से ज्यादा अच्छा मानने लग जाता है। इंसान बुरा तब बनता है जब वो खुद  को दूसरों से ज्यादा अच्छा मानने लग जाता है। हमें यह कभी नहीं देखता चहियड कि हमने  कितना एच् अच्छा क्या किया गया है; बल्कि हमें केवल यह  देखना चहियड हूं कि और क्या अच्छा किया जाना बाकी है, और हम और कितना अच्छा कर सकते हैं।

भगवद गीता का योग दर्शन

भगवद गीता का योग दर्शन बुद्धि, विवेक, कर्म, संकल्प और आत्म गौरव की एकस्वरता पर बल देता है. कृष्ण के मतानुसार मनुष्य के दुःख की जड़ें उसकी स्वार्थ लिप्तता में हैं जिन्हें वह चाहे तो स्वयं को योगानुकूल अनुशासित करके दूर कर सकता है. गीता के अनुसार मानव जीवन का लक्ष्य मन और मस्तिष्क को स्वार्थपूर्ण सांसारिक उलझावों से मुक्त करके अपने कर्मों को परम सत्ता को समर्पित करते हुए आत्म-गौरव को प्राप्त करना है. इसी आधार पर भक्ति-योग, कर्म-योग और ज्ञान-योग को भगवद गीता का केन्द्रीय-बिन्दु स्वीकार किया गया है. गीता का महत्त्व भारत में ब्राह्मणिक मूल के चिंतन में और योगी सम्प्रदाय में सामान रूप से देखा गया है. वेदान्तियों ने प्रस्थान-त्रयी के अपने आधारमूलक पाठ में उपनिषदों और ब्रह्मसूत्रों के साथ गीता को भी एक स्थान दिया है.

Monday, November 2, 2020

उपनिषद विद्या औऱ आधुनिक धर्म निरपेक्ष शिक्षा का अन्तर


भारत के क्रमबद्ध ज्ञान सृजन की कहानी वेदों से शुरू हुई....अर्जन में उसके पहले के लोगों से चली आती ज्ञान परम्परा का भी ख़्याल रखा ही होगा ऋषियों ने और शायद इसीलिये स्रजनकर्ताओं ने अपने नाम का कहीं ज़िक्र नहीं किया। आज के उपलब्ध चारों वेद को रूप देने के बाद भी नई पीढ़ी के ऋषियों ने उस ज्ञान को  अपने अनुसंधानों से पोषित किया....उन ज्ञानी ऋषियों ने अपने बारे न कुछ लिखा, न अपने शिष्यों को बताया और यही क्रम शतियों तक चलता रहा....
कल राकेश से बातचीत के सिलसिले में जब विषय आया किस तरह की शिक्षा की बात हमारे ऋषियों ने की. हाँ, वेदों के समय से कुछ ऋषि जहां जीवन सत्य की खोज में लगे जो आज विश्व द्वारा प्रशंसित है, वहीं कुछ अन्य खगोल एवं गणित विज्ञानों भी हज़ारों साल पहले पहुँचे जैसे सुलभशास्त्र, शून्य एवं अनन्त आदि से पता चलता है।पर लगता है उन्हें पराविद्या होने के कारण इतनी प्रसिद्धि नहीं मिली।

मंडूकोपनिषद् में बहुत साफ़ साफ़ दो तरह की विद्या का ज़िक्र है- परा विद्या एवं अपरा विद्या, जो यह भी बताता है कि उस समय में विद्या का क्षेत्र कितना बड़ा होता जा रहा था.
मंडूकोपनिषद् का श्लोक है: तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्शा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति।
अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते ॥१.५॥ मंडूकोपनिषद् 
उसमें अपरा है, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द तथा ज्योतिष। और परा विद्या वह है जिससे 'अक्षर तत्त्व' का ज्ञान होता है। ‘अक्षर तत्त्व’ अध्यात्म ज्ञान है, जो  उस महत् ज्ञान को कहा गया है जिससे अमृतत्व पाया जा सकता है और सब दुखों से मुक्ति...। 
सोचने की बात है कि वेदों की विद्या को भी अपरा कहा गया जिसे आज सेक्यूलर शिक्षा या आधुनिक शिक्षा कहा जाता है। 

पर सबसे पुराने उपनिषदों में एक ईशोपनिषद् में प्रणेता ऋषि ने इसका खुलासा किया है कि दोनों विद्या एक दूसरे की पूरक हैं। यहाँ विद्या परा-विद्या ‘विद्या’ हैं एवं अपरा-विद्या ‘अविद्या’। 
श्लोक है: 
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभ्य सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वाऽमृतमश्नुते ॥११
जो तत् को इस रूप में जानता है कि वह एक साथ विद्या और अविद्या दोनों है, वह अविद्या से मृत्यु को पार कर विद्या से अमरता का आस्वादन करता है।
आज भी सफल सुखमय, शान्तिमय सांसारिक जीवन के लिये आध्यात्मिक विद्या की नींव पर आधुनिक विद्या पाना ज़रूरी है। इसीलिये ऐसी ही शिक्षा व्यवस्था की ज़रूरत है और होनी चाहिये। हमने आध्यात्मिक शिक्षा से जीवन में नैतिकता के मूल्यों को भूला दिया संविधान के ‘सेक्यूलर’ शब्द की परिभाषा ठीक से नहीं देने एवं समझने के कारण । ‘भारत माता’, या ‘वन्देमातरम्’ सेक्यूलर नहीं रहा, फिर रामायण रचयिता तुलसीदास, कबीर, रैदास,रसखान को कैसे रखा जाये हमारे स्कूल की शिक्षा में । उपनिषदों को कौन सेक्यूलर (धर्म-निरपेक्ष)कहने देगा आज के राजनीतिक माहौल में जहां सभी जीवन मूल्य वोट की तराज़ू पर तौला जाता हो...। जब ब्राह्मण असुरों के कार्यों को श्रेष्ठ मानने लगे हैं एवं उसके लिये वे शूद्र बनने पर तैयार हैं एवं शूद्र और अन्य पिछड़ी जातियाँ रैदास या अन्य संतों को नहीं, शवरी, निषाद्, या केवट को नहीं आज के स्वार्थी नेताओं को न समझ उन्हें ही भगवान माँगने लगी हैं। अल्प संख्यक न कबीर रसखान, रहीम या साँई बाबा को नहीं मानते अपने धर्म के ठेकेदारों की बात मानते हैं....पर जो इसके बारे में कोई राय जानना चाहते हैं वे श्री. M के नाम से प्रसिद्ध श्रध्येय मुमताज़ अली खान के उपनिषदों की किताबों एवं व्याख्यानों से क्यों नहीं कुछ सीखते...
विवेकानन्द ने बराबर यही प्रतिपादित किया। देश कब तक यह धर्म निरपेक्षता का पासा खेलते हुए देश के महाभारत युद्ध को ख़त्म ही नहीं होने देता...धर्म, जाति, रंग, प्रदेश, भाषा के नाम से जोड.....क्यों नहीं हम देशवासी भारतीय उपनिषद् के इन श्लोकों से सीख ले सकते....
यस्तु सर्वानि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति ।
सर्वभूतेषु चात्मान ततो न विजुगुप्सते ॥६॥
जो सभी जीवों में अवस्थित आत्मा को अपनी आत्मा से अलग नहीं मानता, जो अपनी आत्मा को सभी में देख सकता है वह कैसे एक दूसरे से घृणा या दुश्मनी कर सकता है.....
The Wise man, who realizes all beings as not distinct from his own Self, and his own Self as the Self of all beings, does not, by virtue of that perception, hate anyone.
यस्मिन्सर्वानि भूतानन्यात्मैवभुद्विजानतः ।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥७॥
जो सभी में स्थित आत्मा को अपनी ही आत्मा की तरह जानता समझता है, कैसे अंधकार या शोक में रह सकता है।
What delusion, what sorrow can there be for that wise man who realizes the unity of all existence by perceiving all beings as his own Self?’
सभी उपनिषदों ने इसे बार बार दुहराया और भगवद्गीता भी...अगर दुनिया के लोग समझ जाते यह उपनिषद्ज्ञान, यह पूरे विश्व का कल्याण कर देता केवल भारत ही क्यों?
कहीं कोई भूल दिखती है तो कृपया बताने की कृपा करें, पर पहले समझने की कोशिश करें....
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