Tuesday, November 3, 2020

भगवद गीता का योग दर्शन

भगवद गीता का योग दर्शन बुद्धि, विवेक, कर्म, संकल्प और आत्म गौरव की एकस्वरता पर बल देता है. कृष्ण के मतानुसार मनुष्य के दुःख की जड़ें उसकी स्वार्थ लिप्तता में हैं जिन्हें वह चाहे तो स्वयं को योगानुकूल अनुशासित करके दूर कर सकता है. गीता के अनुसार मानव जीवन का लक्ष्य मन और मस्तिष्क को स्वार्थपूर्ण सांसारिक उलझावों से मुक्त करके अपने कर्मों को परम सत्ता को समर्पित करते हुए आत्म-गौरव को प्राप्त करना है. इसी आधार पर भक्ति-योग, कर्म-योग और ज्ञान-योग को भगवद गीता का केन्द्रीय-बिन्दु स्वीकार किया गया है. गीता का महत्त्व भारत में ब्राह्मणिक मूल के चिंतन में और योगी सम्प्रदाय में सामान रूप से देखा गया है. वेदान्तियों ने प्रस्थान-त्रयी के अपने आधारमूलक पाठ में उपनिषदों और ब्रह्मसूत्रों के साथ गीता को भी एक स्थान दिया है.

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