Sunday, September 20, 2015

धर्म और धर्म गुरु

इस दुनिया में जो इतना अधर्म है , इस अधर्म का कारण नास्तिक लोग या अधार्मिक लोग नहीं हैं , और न ही इस इस अधर्म का कारण ईश्वर विरोधी लोग हैं .. मेरे दृष्टिकोण में इस अधर्म का कारण वे लोग हैं जो मिथ्या धर्मं की लकीर पीटते हैंऔर उस पर लोगों को भटकाते रहते  हैं .
करोड़ों लोगों को सदियों से धर्मं गुरुओं ने भटकाया है और वे आज भी भटका रहे हैं तथा करोड़ों लोग भटक रहे हैं. सारी दुनिया में ये धर्मं गुरु झगड़ों के अड्डे हैं .
धर्मं का भला झगडे से क्या सम्बन्ध हो सकता है , यह सारी व्यर्थ की चीजों में , सारी झूठी और पाखंड की बातों में आदमी को भटकाया जा रहा है..
किसी को कहा जा रहा है राम राम जपो
किसी को कहा जा रहा है अल्लाह अल्लाह जपो. 
धर्म के नाम पर इतने अधार्मिक धर्म गुरु प्रकट हो गए है जो स्वयं को अवतार,शक्ति, देवी और यहां तक स्वयं को भगवान तक घोषित कर देते हैंलेकिन कोई कुछ भी चीखे-चिल्लाये या शोर मचाये,नाचे -गाये ,या फिर पूजे -पुजवाये , कुछ भी कर ले वह व्यक्ति धार्मिक हो ही नहीं सकता,परमात्मा तक नहीं पहुँच सकता..
वहां तक तो सिर्फ वे पहुचते हैं जिनकी वाणी , शब्द , विचार सब ठहर जाते हैं , वहां कुछ भी चिल्लाने की जरुरत नहीं है , वहां तो चुप हो जाने और मौन हो जाने की जरुरत है , परमात्मा तक केवल वे पहुचते हैं जो सब भांति मौन हो जाते हैं , चुप्पी ले जाती हैं वहां , क्योंकि चुप्पी पर शोषण नहीं किया जा सकता है ,
मैं इस पोस्ट के माध्यम से बस इतना कहना चाहता हूँ की भगवान, ईश्वर, परमात्मा यह  कोई नाम नहीं है , जब तक नाम की पकड़ रहेगी तब तक वो नहीं मिलेगा , वह नाम रहित है , वह अन्नं, अन्नादि है..
न पहुँची कल्पना तुझ तक, न तुझको ज्ञान ने जाना,
थके विज्ञान-अन्वेषण, तपोबल ने न पहचाना !
छिपा सकते नहीं जिसको धरा नीचे, गगन ऊपर
छिपा लूँ नयन में कैसे, जगाऊँ किस तरह अन्तर !!
जब चित्त सारे नाम छोड़ देता है , सारे शब्द, शाश्त्र ,विचार सब छोड़ देता है चुपचाप खड़ा रह जाता है , तब वहां पहुच जाता है जहां हमारी पहुचने की वास्तविक आकांक्षा होती है .लेकिन कैसे पहुचें क्योंकि हम सब धार्मिक और साम्प्रादायिक बंधन रुपी खूटें से बंधें और जकड़े हुए हैं..
हमारा मन जब तक किसी से बंधा है चाहे वो धन, धर्मं , पत्नी, परिवार, या अपने द्वारा गढ़ा हुआ धर्मं या परमात्मा, मोक्ष , स्वर्ग , गृहश्थी या सन्यास ही क्यों न हो , तब तक आदमी वास्तविक धर्मं के सागर में प्रवेश नहीं कर सकता है , धर्मं के महासागर में प्रवेश करने के लिए एक ऐसा सत्व चित चाहिए जो कहीं भी बंधा न हो, जो एकदम खाली हो जिसकी कोई पकड़ न हो , वह तत्क्षण वहां पहुच जाता है जहां प्रभु का महासागर है ..
धर्म मानव को निष्क्रय नहीं बनाता है बल्कि उसको सक्रिय बनाता है. धर्म सत्य को स्वीकार करने की और उस पर चलने की आज्ञा देता है. धर्म का अर्थ मानवता का सम्पूर्ण विकाश है, धर्मं का कोई विशेष सम्प्रदाय नहीं होता है,धर्म वह संकल्पना है जो एक सामान्य पशुवत मानव को प्रथम इन्सान और फिर भगवान बनाने का सामर्थ रखती है. 
प्रत्येक व्यक्ति के भीतर स्थित ईश्वरता का नाम ही धर्म है. निस्वार्थ और पवित्र बनने का प्रयास ही धर्म है”.
धर्मं गुरु यह कहते हैं की ब्रह्मचर्य से मिलता है- "ईश्वर" 
त्याग से मिलता है -"ईश्वर" 
तप से मिलता है- "ईश्वर" 
लेकिन मेरा अपना मानना यह है की बात बिलकुल इसके उलटी है .
ईश्वर के मिलाने से यह सब चीजें मिल जाती हैं , यह सब बिना ईश्वर के मिले मिल ही नहीं सकता है .ये ईश्वर के मिलने पर खिले हुए फूल हैं , ये सब ईश्वर से मिल जाने पर जीवन में आई हुयी सुगंध है , अनुभूति है .जैसे कोई कहे की अँधेरा हट जाए तो प्रकाश जल जाता है, तो मैं कहूँगा बिलकुल गलत , प्रकाश जल जाए तो अँधेरा जरुर मिट जाता है ...
ईश्वर प्रकट हो जाए तो सब प्रकट हो जाता हैं ...जब हम परमात्मा से प्रेम करने लगते हैं तो कोई भी सांसारिक वस्तु इस लायक नहीं प्रतीत होती कि उससे प्रेम किया जाए, जिस प्रकार चातक को यह विश्वास होता है कि स्वाति नक्षत्र में बरसे जल से ही उसकी पिपासा शान्त होगी, तब चातक पक्षी पावस में गिरने वाली ओस की पहली बूंदों का प्यासा हो जाता है,तो उसे न तो तूफान का भय होता है और न ही बादलों की गर्जना का.
इसी प्रकार साधक को भी ऐसी प्यास उत्पन्न हो जाये तो परमात्मा की प्राप्ति सुलभ हो जाती है ..यदि एक बार ईश्वर सानिध्य का स्वाद चख लिया तो फिर उसे संसार की सभी वस्तुयें स्वत: ही बेजान और बेस्वाद लगने लगती हैं,तब सांसारिक सुख-दुःख की धरणा मिट जाती है, तब वह परम-आनन्द को प्राप्त कर सभी प्रकार से मुक्त हो जाता है.
अगर किसी भी धर्मं गुरु या व्यक्ति विशेष को मेरे इस लेख पर आपत्ति है तो स्पष्ट अपनी आपत्ति दर्शा सकते हैं, आप सभी के विचारों का स्वागत है ..धन्यबाद...


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