Thursday, May 15, 2025

जेहादियों से भारत की प्रताड़ना और हिन्दुओं की निर्वीर्यता तथा पराभव का मौलिक कारण

जेहादियों से भारत की प्रताड़ना और हिन्दुओं की निर्वीर्यता तथा पराभव का मौलिक कारण है वर्णसंकर प्रजनन जो प्रतिलोम मिलन/ विवाह (hypogamy of females) से होता है। ऐसी संतति की कोशिकीय जैविक संरचना ही ध्वंसमुखी रहती है मातृ संस्कृति के प्रति। कितनी भी मेधावी या तेजस्वी क्यों न हो इसका लक्ष्य रहता है जीवन का ध्वंस, भले वह आत्मघाती क्यों न हो। अन्य शब्दों में, मृत्यु से अतिशय लगाव इनका inborn instinctive temperament रहता है।

इसीलिए अनादि काल से हमारी सभ्यता में प्रतिलोम प्रजनन निषिद्ध है। यही नहीं, ध्यान से देखेंगे तो विश्व की लगभग सभी सभ्यताओं में प्रतिलोम प्रजनन से बचने का प्रयास देखा जा सकता है। क्योंकि ऐसी संतति को दुनिया की कोई ताकत सुधार नहीं सकती, न शिक्षा न कोई लालच। इनको भारतीय समाज में रिहायशी क्षेत्रों में प्रवेश की भी अनुमति नहीं थी।

केवल एक वर्णसंकर (प्रतिलोम विवाह) व्यक्ति ही समाज को नष्ट करने के लिए काफी है, यहाँ तो करोड़ों हो गए हैं।

यत्र त्वेते परिध्वंसाज्जायन्ते वर्णदूषकाः।
राष्ट्रिकैः सह तद्राष्ट्रं क्षिप्रमेव विनश्यति॥10.61- -- मनुस्मृति
[जहाँ पर, जिस देश में, ये वर्ण को दु:खित करने वाले, वर्णसंकर (प्रतिलोम विवाह से) उत्पन्न होते हैं, वह देश प्रजा के साथ शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।]

महाभारत के अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 48 में---
"वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर ने कहा- पितामह! धन पाकर या धन के लोभ में आकर अथवा कामना के वशीभूत होकर जब उच्‍च वर्ण की स्‍त्री नीच वर्ण के पुरुष के साथ सम्‍बन्‍ध स्‍थापित कर लेती है तब वर्णसंकर संतान उत्‍पन्‍न होती है।"

'Hypogamous union does bring in dissolution in the brain-factor of the male and female, moreover,
it distorts and blunts their nervous system, and sometimes makes them repugnant to ancestral lineage and culture,
demoniacally unbalanced, stubbornly inclined to anti-becoming and sentimental or peevish.'

ध्यान रहे, इस्लामिक आक्रांताओं ने शुरू से ही हिंदू नारियों में अपने बीज बोने शुरू किए। प्रतिलोम संतति का सबसे बड़ा स्रोत यही रहा है। आधुनिक समय में हिन्दुओं में भी प्रतिलोम अत्यधिक व्यापक हो गया है।

वर्णसंकरता यानि प्रतिलोम (Hypogamy of females) केवल मनुष्य के प्रजनन में ही नहीं, पशुओं के प्रजनन और कृषि, बागवानी में भी समान रूप से खतरनाक है। क्योंकि यह प्रकृति के जीवनीय प्रवाह का ही बलात्कार है।

' Graft not females of cultured species of distinguished characteristics on inferior or wild varieties,
-lo ! hell is winking.'

'Inferior sperm pricks destroy the nodules of superior ova.'

इसके विपरीत, अनुलोम असवर्ण प्रजनन यानि hypergamy of females को वर्णसंकर नहीं कहा जाता और ऐसा प्रजनन परम उत्कर्षदायी है। यह भारत सभ्यता का महत्वपूर्ण अंग था जिससे पूर्ण सामाजिक संहति और एकता बनी रहती थी। और हम इसी का उपयोग कर बाहर से आने वाले समुदायों को आत्मसात् कर लेते थे। जब से अनुलोम असवर्ण कम गया भारत निर्वीय होने लगा क्योंकि अनुलोम विवाह से ही hybrid vigour वाली संतति जन्म लेती है। इस संतति का स्वाभाविक जैविक टेंपरामेंट होना है अन्याय, अधर्म और अनीति का प्रचण्ड प्रतिकार। ऐसी संतति किसी लोभ, मोह या स्वार्थ से अपनी संस्कृति, अपने धर्म, सभ्यता का त्याग नहीं कर सकती चाहे प्राण भी क्यों न चले जायें। अनुलोम विवाह नहीं करने से समाज श्लथ, dull हो जाता है। मेरुदण्ड-विहीन हो जाता है। यही हुआ है भारत के समाज का। एकता, संहति और पराक्रम तीनो में पतन हुआ जिस कारण बाहरी हमलावरों से हम देश की रक्षा नही कर पाए।
.... मुसलमानों के पहले भी विदेशी आते थे, आक्रमणकारी आते थे। शस्त्र से प्रतिरोध करने के अलावा हमने उन समुदायों को अनुलोम विवाह द्वारा आत्मसात् कर लिया, हम उन्हें अपने में लील गए। .... परन्तु अज्ञानता के कारण अनुलोम विवाह को अस्वीकार करने की वजह से मुस्लिम आक्रमणकारियों की लड़कियों को हमने ग्रहण करने से इनकार कर दिया। बाजीराव पेशवा को उनके परिवार ने अपमानित किया, बंगाल में ब्राह्मण रायचंद को अज्ञानी पंडितों ने मुस्लिम लड़की ग्रहण नहीं करने दी जिससे काला पहाड़ का विनाश उत्पन्न हुआ। कश्मीर में भी यह खूब हुआ। ...मुसलमानों के आते-आते तक भारत में 'अनुलोम असवर्ण विवाह' कम या बंद ही हो गया था जिस कारण समाज में घृणा एवं संघर्ष बढ़ गया एवं हिन्दू समाज मुस्लिम लड़कियों को स्वीकारने से परहेज़ करने लगा. .. उधर मुसलमान दनादन हिन्दू लड़कियों को ले लेकर अपनी जनसंख्या बढ़ाते रहे।आज वही मुट्ठी-भर मुसलमान बढ़ के हिन्दू समाज पर, भारत पर ग्रहण की तरह छा गए हैं. यदि अनुलोम विवाह व्यवस्था सुदृढ रहती तो ऐसा कभी नहीं होता. ना ही जातिवाद यानि जातियों के बीच संघर्ष उत्पन्न हुआ रहता जो आधुनिक काल में समाज को विषाक्त कर रहा है। अनुलोम विवाह पद्धति से आपसी विवाह के कारण सभी जातियों में आपसी रक्त संबंध था जिससे conflict होता ही नहीं था।

असवर्ण अनुलोम विवाह से उत्पन्न संतानों का जन्मजात स्वभाव अपनी संस्कृति एवं धर्म तथा पारस्परिकता को लेकर बहुत प्रचण्ड एवं आक्रामक होता है। Hyenas की तरह। ये अपने समुदाय में जबरदस्त एकता में रहते हैं। यदि किसी बाहरी ने एक hyena को चोट पहुँचाई तो सारे hyenas एकजुट होकर टूट पड़ते हैं। मेरा क्या, मेरा क्या, कह के बिखर नहीं जाते, आजकल के हिन्दुओं के जैसे ! 

Friday, February 10, 2023

देश बड़ा है या धर्म?

एक भाई ने सवाल कर दिया कि देश बड़ा है या धर्म?
इस पर बहुत लोग उलझन में पड़ गए।
 किसी ने देश कहा और किसी ने धर्म।
अगर मुझसे ये सवाल आज से 25 साल पहले पूछा गया होता तो देश बोलने में 1 सेकण्ड नहीं लगाता पर आज मैं 'धर्म' बोलने में देर नहीं करूँगा।
देश क्या है देश?
जब तक आप इस देश में है, तबतक आप इस देश में सुरक्षित हैं, तभी तक तो है ये आपका देश। 
देश तो ये तब भी कहलायेगा जब कोई इस देश पर कब्ज़ा कर ले और आपको भगा दे । लेकिन तब ये देश उस आक्रमणकारी का होगा, आपका नहीं। मतलब साफ है -- जब तक देश में आपका राज है तभी तक देश आपका है। देश बचता है धर्म से।
जिस मजहब के लोगों के पास एक भी देश नहीं था उन्होंने सिर्फ धर्म पर अडिग रहकर 57 देश बना लिए
(सवाल ये नहीं कि उनका मजहब ख़राब था या अच्छा)। 
जिसने धर्म से ज्यादा राष्ट्रीयता को महत्त्व दिया उसके हाथ से देश निकल गया। हमारे हाथों से पाकिस्तान के रूप में, अफगानिस्तान के रूप में देश का बड़ा भाग क्यों निकला? 
क्योंकि हम धार्मिक कम सेक्युलर ज्यादा हो गए। अगर हिन्दु कट्टर होते, अड़ जाते लड़ जाते कि जान जायेगी लेकिन दूसरे धर्म के लोगों को नहीं देंगे अपनी जगह तब पाकिस्तान नहीं बनता। कैराना,कांधला,अलीगढ,मेवात, कश्मीर आदि करीब 40% से अधिक भारत का भूभाग क्यों हिंदुओं के हाथ से निकला, क्योंकि उनके लिए देश पहले था धर्म नहीं।
मस्जिद के नाम पर, मदरसे के नाम पर, देश के विभिन्न सार्वजनिक स्थानों पर मजार के नाम पर, कब्रस्तान के नाम पर, अवैध मकान और कालोनी निर्माण के और अन्य रुप में निरन्तर देश की जमीन पर इतनी तेजी से कब्जा किया जा रहा है,कि हिन्दु भारत में कब शरणार्थी बन जायेंगे यह पता ही नहीं चलेगा। नतीजा धर्म भी गया और देश (स्थान) भी गया।
अब दो सवाल है।

1. क्या पाकिस्तान में हिन्दू धर्म है?
2. क्या पाकिस्तान हमारा देश रहा?
मतलब देश भी गया और धर्म भी गया।
क्यों गया? 
क्योंकि भारत की तरफ से गांधी नेहरू जैसे एक जमात ने धर्म छोड़कर सेकुलरिज्म अपनाया। जबकि जिन्ना ने सिर्फ अपने धर्म की बात कही, देश भी माँगा, और देश भी धर्म के आधार पर माँगा। खून किया सब धर्म के लिए नतीजा उनका धर्म बचा ही नहीं बल्कि बढ़ा और साथ में देश भी पाया।
हिन्दू उल्टा करते हैं, देश के नाम पर धर्म छोड़ देते हैं। और धर्म छोड़ते ही कमजोर हो जाते हैं। और हमारे हाथ से धर्म तो जाता ही है,देश भी निकल जाता है। मेरा पक्ष यही है इस सवाल पर, सहमत होना ना होना आपके विवेक पर निर्भर है।

Thursday, July 14, 2022

शिव मानस पूजा

शिव मानस पूजा एक सुंदर भावनात्मक स्तुति है,जिसमे मनुष्य अपने मनके द्वारा भगवान् शिव की पूजा कर सकता है।
शिव मानस पूजा स्तोत्र द्वारा कोई भी व्यक्ति बिना किसी साधन और सामग्री के भगवान् शिव की पूजा संपन्न कर सकता हैं।
शास्त्रों में मानसिक पूजा अर्थात मन से की गयी पूजा,
श्रेष्ठतम पूजा के रूप में वर्णित है। 

भगवान् शिव के लिए धूप, दीप, आसन 

रत्नैः कल्पितमासनं हिमजलैः स्नानं च दिव्याम्बरं,
नानारत्नविभूषितं मृगमदा मोदाङ्कितं चन्दनम्।
जाती-चम्पक-बिल्व-पत्र-रचितं पुष्पं च धूपं तथा,
दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितं गृह्यताम्॥ 

रत्नैः कल्पितम-आसनं – यह रत्ननिर्मित सिंहासन,
हिमजलैः स्नानं – शीतल जल से स्नान,
च दिव्याम्बरं – तथा दिव्य वस्त्र,
नानारत्नविभूषितं – अनेक प्रकार के रत्नों से विभूषित,
मृगमदा मोदाङ्कितं चन्दनम् – कस्तूरि गन्ध समन्वित चन्दन,
जाती-चम्पक – जूही, चम्पा और
बिल्वपत्र-रचितं पुष्पं – बिल्वपत्रसे रचित पुष्पांजलि
च धूपं तथा दीपं – तथा धूप और दीप
देव दयानिधे पशुपते – हे देव, हे दयानिधे, हे पशुपते,
हृत्कल्पितं गृह्यताम् – यह सब मानसिक (मनके द्वारा) पूजोपहार ग्रहण कीजिये 

भावार्थ: –
       हे देव, हे दयानिधे, हे पशुपते,यह रत्ननिर्मित सिंहासन, शीतल जल से स्नान, नाना रत्न से विभूषित दिव्य वस्त्र,कस्तूरी आदि गन्ध से समन्वित चन्दन,जूही, चम्पा और बिल्व पत्र से रचित पुष्पांजलि तथा धूप और दीप यह सब मानसिक [पूजोपहार] ग्रहण कीजिये। 

शंकरजी के लिए नैवेद्य, जल, शरबत 

सौवर्णे नवरत्न-खण्ड-रचितेपात्रे घृतं पायसं,
भक्ष्यं पञ्च-विधं पयो-दधि-युतं रम्भाफलं पानकम्।
शाकानामयुतं जलं रुचिकरंकर्पूर-खण्डोज्ज्वलं,
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु॥ 

सौवर्णे नवरत्न-खण्ड-रचिते पात्रे – नवीन रत्नखण्डोंसे जडित सुवर्णपात्र में
घृतं पायसं – घृतयुक्त खीर, (घृत – घी)
भक्ष्यं पञ्च-विधं पयो-दधि-युतं – दूध और दधिसहित पांच प्रकार का व्यंजन,
रम्भाफलं पानकम् – कदलीफल, शरबत,
शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूर-खण्डोज्ज्वलं – अनेकों शाक, कपूरसे सुवासित और स्वच्छ किया हुआ मीठा जल
ताम्बूलं – तथा ताम्बूल (पान)
मनसा मया विरचितं – ये सब मनके द्वारा ही बनाकर प्रस्तुत किये हैं
भक्त्या प्रभो स्वीकुरु – हे प्रभो, कृपया इन्हें स्वीकार कीजिये 

भावार्थ: –
   मैंने नवीन रत्नखण्डों से जड़ित सुवर्ण पात्र में घृतयुक्त खीर, दूध और दधि सहित पांच प्रकार का व्यंजन,कदली फल, शरबत, अनेकों शाक,कपूर से सुवासित और स्वच्छ किया हुआ मीठा जल तथा ताम्बूल ये सब मन के द्वारा ही बनाकर प्रस्तुत किये हैं। हे प्रभो, कृपया इन्हें स्वीकार कीजिये। 

भोलेनाथ के स्तुति के लिए वाद्य 

छत्रं चामरयोर्युगं व्यजनकंचादर्शकं निर्मलम्,
वीणा-भेरि-मृदङ्ग-काहलकला गीतं च नृत्यं तथा।
साष्टाङ्गं प्रणतिः स्तुतिर्बहुविधाह्येतत्समस्तं मया,
संकल्पेन समर्पितं तव विभो पूजां गृहाण प्रभो॥

छत्रं चामरयोर्युगं व्यजनकं – छत्र, दो चँवर, पंखा,
चादर्शकं निर्मलम् – निर्मल दर्पण,
वीणा-भेरि-मृदङ्ग-काहलकला – वीणा, भेरी, मृदंग, दुन्दुभी के वाद्य,
गीतं च नृत्यं तथा – गान और नृत्य तथा
साष्टाङ्गं प्रणतिः स्तुतिर्बहुविधा – साष्टांग प्रणाम, नानाविधि स्तुति
ह्येतत्समस्तं मया संकल्पेन – ये सब मैं संकल्प से ही
समर्पितं तव विभो – आपको समर्पण करता हूँ
पूजां गृहाण प्रभो – हे प्रभो, मेरी यह पूजा ग्रहण कीजिये 

भावार्थ: –
        छत्र, दो चँवर, पंखा, निर्मल दर्पण,वीणा, भेरी, मृदंग, दुन्दुभी के वाद्य,गान और नृत्य,साष्टांग प्रणाम, नानाविधि स्तुति– ये सब मैं संकल्प से ही आपको समर्पण करता हूँ।हे प्रभु, मेरी यह पूजा ग्रहण कीजिये। 

तन, मन, बुद्धि, कर्म, निद्रा – सब कुछ शिवजी के चरणों में 

आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराःप्राणाः शरीरं गृहं,
पूजा ते विषयोपभोग-रचना निद्रा समाधि-स्थितिः।
सञ्चारः पदयोः प्रदक्षिणविधिःस्तोत्राणि सर्वा गिरो,
यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्॥ 

आत्मा त्वं – मेरी आत्मा तुम हो,
गिरिजा मतिः – बुद्धि पार्वतीजी हैं,
सहचराः प्राणाः – प्राण आपके गण हैं,
शरीरं गृहं – शरीर आपका मन्दिर है
पूजा ते विषयोपभोग-रचना – सम्पूर्ण विषय भोग की रचना आपकी पूजा है,
निद्रा समाधि-स्थितिः – निद्रा समाधि है,
सञ्चारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः – मेरा चलना-फिरना आपकी परिक्रमा है
स्तोत्राणि सर्वा गिरो – सम्पूर्ण शब्द आपके स्तोत्र हैं
यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं – इस प्रकार मैं जो-जो कार्य करता हूँ,
शम्भो तवाराधनम् – हे शम्भो, वह सब आपकी आराधना ही है। 

भावार्थ: –
       हे शम्भो, मेरी आत्मा तुम हो,बुद्धि पार्वतीजी हैं,प्राण आपके गण हैं,शरीर आपका मन्दिर है,सम्पूर्ण विषय भोग की रचना आपकी पूजा है,निद्रा समाधि है,मेरा चलना-फिरना आपकी परिक्रमा है तथा सम्पूर्ण शब्द आपके स्तोत्र हैं।
इस प्रकार मैं जो-जो कार्य करता हूँ, वह सब आपकी आराधना ही है। 

भगवान से अपने अपराध और गलतियों के लिए माफ़ी माँगना 

कर-चरण-कृतं वाक् कायजं कर्मजं वा,
श्रवण-नयनजं वा मानसं वापराधम्।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्-क्षमस्व,
जय जय करुणाब्धे श्री महादेव शम्भो॥ 

कर-चरण-कृतं वाक् – हाथों से, पैरों से, वाणी से,
कायजं कर्मजं वा – शरीर से, कर्म से,
श्रवण-नयनजं वा – कर्णों से, नेत्रों से अथवा
मानसं वापराधम् – मन से भी जो अपराध किये हों,
विहितमविहितं वा – वे विहित हों अथवा अविहित,
सर्वमेतत्-क्षमस्व – उन सबको हे शम्भो आप क्षमा कीजिये
जय जय करुणाब्धे श्री महादेव शम्भो – हे करुणा सागर, हे महादेव शम्भो, आपकी जय हो, जय हो 

भावार्थ: –
          हाथों से, पैरों से, वाणी से, शरीर से, कर्म से, कर्णों से, नेत्रों से अथवा मन से भी जो अपराध किये हों, वे विहित हों अथवा अविहित, उन सबको हे करुणासागर महादेव शम्भो आप क्षमा कीजिये,हे महादेव शम्भो, आपकी जय हो, जय हो।

Thursday, August 26, 2021

धर्म

धर्म का सम्बन्ध व्यक्तिगत जीवन से होता है , मनुष्य यदि सामुदायिक विकास के लिये प्रयत्नशील नहीं होता,या सामुदायिक रूप से जीवन व्यतीत नहीं कर रहा होता, तो शायद लोगों के लिये धर्म की आवश्यकता भी नहीं होती ।
 
किन्तु यह धर्म ही है, जो मनुष्य को नैतिक और सामाजिक बनाता है तथा समाज या मनुष्य का सामुदायिक जीवन उसी नैतिकता के उपर प्रतिष्ठित है। और नैतिक जीवन की परिपूर्णता का ही दूसरा नाम आध्यात्मिकता है। इसीलिये सामाजिक व्यक्ति धार्मिक हुए बिना रह ही नहीं सकता है।
 
आध्यात्मिकता से व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों कल्याण साधित होते हैं। अतः सामाजिक न्याय के नाम पर धर्म के प्रति उदासीन हो जाने की शिक्षा देने से समाज का ही बहुत बड़ा अकल्याण हो रहा है।हमें ऐसा नहीं मान लेना चाहिये कि धर्म आम जनता के लिये नशा या भय जैसा है, बल्कि यह समझना चाहिए कि धर्म तो समाज का रक्त है।
 
उस रक्त के दूषित हो जाने से समग्र समाज-देह ही नष्ट हो जाता है। तथा वह रक्त यदि स्वस्थ और सबल रहे तो समाज हर प्रकार से स्वस्थ, प्राणवन्त और सुन्दर बना रहता है। हमारे सामाजिक जीवन में आज जो गंदगी व्याप्त है, उसका कारण विशुद्ध धर्म प्रवाह की कमी ही है। जीवन में चाहे विज्ञान का उपयोग कितना भी क्यों न बढ़ जाये, किन्तु केवल सुखकर या भोग की वस्तुओं को एकत्र कर लेने से ही मनुष्य के जीवन में सुख-शांति नहीं आ सकती है। 
 
प्राणि-शरीर के मस्तिष्क में स्थित परितोषण-केन्द्रही जब नष्ट हो जाता है, तो फिर उस जीव को कोई भी वस्तु कितनी ही मात्रा में क्यों न प्राप्त हो जाय, वह कभी संतृप्त ही नहीं हो सकता है। हमारे समाज-शरीर के मस्तिष्क का यह परितोषण-केन्द्र भी आज लगभग पूर्णतयः नष्ट ही हो चूका है।
 
वह केवल भोजन विलासी ही नहीं है अमित-आहारी बन चूका है। किन्तु असीमित आहार स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होता है। तथा समाज-शरीर में असीमित-आहार करने की बुराई प्रविष्ट हो जाने के कारण ही समाज दूष्ट बन गया है।धर्म मनुष्य में जितने सद्गुणों को प्रदान करता है, उसमें सयंम एक अत्यन्त मूल्यवान गुण है।
 
यह संयम ही है जो मस्तिष्क के परितोषण-केन्द्र केन्द्र को जीवित रखता है। इसलिये धर्म यह शिक्षा देता है कि जो व्यक्ति को अपने जीवन में में आनंद और प्रेम प्राप्त करना हैऔर जीवन को प्रगति की तरफ अग्रसर करना है उसके लिए जीवन में धर्मं की नितांत आवश्यकता है , धर्म यह भी कहता है कि-'प्रजाये कम् अमृतम् नावृनीत'-अर्थात साधारण जन का कल्याण करने के लिये कोई कोई व्यक्ति तो अमरत्व को भी त्याग देते हैं।
 
जिस समाज में धर्म का सुन्दर रूप दिखाई देता हो, उस समाज से धर्म को जड़-मूल सहित उखाड़ फेकने की बात करने के पहले, क्या हमें यह समझ लेना उचित नहीं होगा कि हमलोगों ने इस समय यथार्थ धर्म की जो उपेक्षा कर दी है, कहीं उसी के फलस्वरूप तो समाज के शीर्ष पदों पर बैठे व्यक्ति भी इतना नीचे नहीं गिर गये हैं ? समाज में धर्मं का पतन होना ही हमारे राष्ट्रीय और सामजिक पतन का कारण है।
 
धर्म के सार को आचरण में उतारने की कमी ही इसका कारण है। हमारे समाज ने यह समझ लिया है कि एक समग्र दृष्टि प्राप्त होने का परिणाम ही धर्म है। इसीलिये ऐसा धर्म किसी ऐरे-गैरे व्यक्ति के चिन्तन का परिणाम नहीं हो सकता। इसलिये धर्म के मूल भाव को समझे बिना जिस किसी शब्द के साथ धर्मं लगा देने से ही वह वस्तु धर्मं नहीं बन जाती। अधूरे दर्शन से समग्र-दृष्टि प्राप्त नहीं होती, उसमें कहीं न कहीं छिद्र रह ही जाती है।
 
इसीलिये उस धर्म रूपी फल के छिलके को खाने से व्यक्ति-जीवन या सामुदायिक-जीवन को पूर्ण रूप से पौष्टिकता प्राप्त नहीं होती। इसीलिये वर्तमान युग में भी यदि हमलोग स्वस्थ व्यक्तियों के समष्टि रूपी समाज का निर्माण करना चाहते हों, तो धर्म की नितान्त आवश्यकता है। जिस प्रकार फूल खिल जाने के बाद वह अपने ही लिये फल के रूप में उसके बीज को भी छोड़ जाता है। और उसी फल के बीज से भविष्य में फिर फूल खिलते हैं। फल के गूदे और बीज को संजोय रखने के लिये एक छिलके की आवश्यकता होती है। फल का छिलका भी कोई बिल्कुल व्यर्थ की वस्तु नहीं है, किन्तु केवल छिलके को लेकर ही व्यस्त रहा जाय तो पौष्टिकता प्राप्त होने की सम्भावना नहीं रहती।इस युग में भी समाज के भीतर धर्म है।
 
यदि यह नहीं होता तो समाज का अस्तित्व भी नहीं रह सकता था। किन्तु उसका प्रवाह अभी बहुत कमजोर हो गया है। सार्वजनिक दुर्गा-पूजा के पंडालों की बढ़ती हुई संख्या को दिखला कर उसके अस्तित्व का प्रमाण सिद्ध करने से काम नहीं चलेगा या ध्वजाधारी पहाड़ पर शिवरात्रि के मेले में बढ़ती हुई भीड़ को देख कर धर्म रूपी फल को खाकर समाज में स्वस्थ हुए मनुष्यों की वास्तविक संख्या का अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। मन की उर्वरा भूमि ही धर्म रूपी फल का जन्म लेने का क्षेत्र है,या मनोभूमि में ही धर्मफल उगता है। किन्तु जब उसमें किसी भाव-विशेष की वर्षा होती है, तो उसके बाद तुरंत उसके उपर कुछ खर-पतवार भी उगने लग जाते हैं।
 
प्रार्थना , पूजा की प्रयोजनीयता इसी जगह है। दस इन्द्रियों (पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ पाँच कर्म इन्द्रियाँ ) के खर-पतवार को काटने के लिये ही हमें दस-भुजा वाली देवी की आवश्यकता दसो-प्रहर बनी रहती है। इसीलिये मानव मनो-भूमि पर सार्थक खेती करने से धर्मं की फसल उगती है। मानव मनोभूमि पर खेती से उत्पन्न धर्म रूपी फल ही समाज-कल्याण तथा मानव-संस्कृति का मार्ग-दर्शक है। इसीलिये वर्तमान समाज को धर्म के छिलके से नहीं सार से प्लावित करना होगा, तभी मनोभूमि पर खेती करके धर्मं की फसल उगाई जा सकती है।
 
आज के दौर में आप किसी भी और स्वयं से भी प्रश्न पूछ कर देखिये की वह या आप कौन है..तो उत्तर यही मिलेगा की कोई कहेगा की मैं हिन्दू हूँ, मुस्लिम हूँ, सिक्ख हूँ, जैन हूँ , बौद्ध हूँ, यहूदी हूँ , पारसी हूँ और भी न जाने किस किस पंथ या सम्प्रदाय का नाम लेगा लेकिन एक भी व्यक्ति आपको ऐसा नहीं मिलेगा की जो यह कहे की मैं धार्मिक हूँ ..
 
जो जीवन में धारण करने योग्य हो वाही धर्मं है .यह सृष्टि और उसमे हमारा जीवन कैसे चलता है, किन नियमों से नियमित है वह है धर्मं ,जीवन में करने योग्य क्या है यह बताता है धर्मं .परमपुरुष ने ,श्रीकृष्ण के नर-रूप में प्रकट होकर स्वयं यह ज्ञान दिया है. श्रीमद भग्वद गीता में "जिस पर सबकुछ आधारित है वही है धर्म और वे ही हैं परमपुरुष."-धर्म वह है जिसपर इस सृष्टि का अस्तित्व टिका है...
 
हमारे जीवन का अस्तित्व एवं हमारा विकास इसी पर आधारित है. धर्म सनातन है, शाश्वत है एवं सार्वभौम है. यह सदा एक है, कभी अनेक नहीं होता. धर्म किसी भी सम्प्रदाय, भौगोलिक सीमा अथवा किसी भी अन्य बंधन में बंधा या सीमायित नहीं है, इसी धर्म के सार को अभिव्यक्त किया कुरुक्षेत्र की रणभूमि में देवकीनंदन वासुदेव ने.हम सबका जीवन एक कुरुक्षेत्र ही है, और हम सब पार्थ की भाँति हैं-- --भ्रमित, चकित एवं समझ नहीं पाते कि करने योग्य क्या है...
 
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८- ६६॥
 
[ सभी कर्तव्यों/आश्रयों को त्याग कर, केवल मेरी शरण लो.
मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्ति दिला दूँगा, इसलिये शोक मत करो ।]
 
यह परमपुरुष की अभय-वाणी है !कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९- ३१॥[ कौन्तेय, तुम एकदम जानो कि मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता । ]
 
जगत के सभी महान पुरुषों के प्रति श्रद्धा रखते हुए परमपुरुष द्वारा निर्देशित सनातन धर्म का अनुशरण करें .ताकि हम सभी व्यक्ति, दम्पत्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र एवं विश्व कल्याण के पथ पर आगे बढ़ सकें, और यह सभी सार्थक हो सकें परमविभु के चरणों में !" हमलोगों का गंतव्य है ईश्वर-प्राप्ति, धारण-पालनी-सम्वेग-सिद्ध व्यक्तित्व-और इसका आसन मार्ग है ....
 
आचार्य में सक्रिय अनुरक्ति क्योंकि इससे होता है ..आत्मनियन्त्रण,परिवार-नियन्त्रण,राष्ट्र-नियन्त्रण, और इसी राष्ट्र-नियन्त्रण के द्वारा सारे विश्व के संग योगसूत्र की रचना करते हुए,सबकुछ लेकर,विवर्द्धन (furtherance /growth) की ओर अग्रसर होना,और, इन सब को सार्थक कर देना ईश्वर में !और, प्राप्ति का परम-बोध यही है."और मेरे दृष्टिकोण में यही है ..
 
मानव जीवन में धर्मं की आवश्यकता...यह मेरी व्यक्तिगे राय है , कृपया अगर आप इससे सहमत है तो आप इसे मेरे गुरु जानो का ज्ञान रुपी आशीर्वाद समझें और अगर आप आप इससे असहमत है तो इसे मेरी गलती या अल्पबुद्धि समझें...
 
****** धन्यवाद *****

Friday, June 11, 2021

विश्व की सबसे ज्यादा सम्रद्ध भाषा

क्या आप जानते है विश्व की सबसे ज्यादा सम्रद्ध भाषा कौनसी है.....

अंग्रेजी में 'THE QUICK BROWN FOX JUMPS OVER A LAZY DOG' एक प्रसिद्ध वाक्य है। जिसमें अंग्रेजी वर्णमाला के सभी अक्षर समाहित कर लिए गए, मज़ेदार बात यह है की अंग्रेज़ी वर्णमाला में कुल 26 अक्षर ही उप्लब्ध हैं जबकि इस वाक्य में 33 अक्षरों का प्रयोग किया गया जिसमे चार बार O और A, E, U तथा R अक्षर का प्रयोग क्रमशः 2 बार किया गया है। इसके अलावा इस वाक्य में अक्षरों का क्रम भी सही नहीं है। जहां वाक्य T से शुरु होता है वहीं G से खत्म हो रहा है। 
अब ज़रा संस्कृत के इस श्लोक को पढिये।-

*क:खगीघाङ्चिच्छौजाझाञ्ज्ञोSटौठीडढण:।*
*तथोदधीन पफर्बाभीर्मयोSरिल्वाशिषां सह।।* 

अर्थात: पक्षियों का प्रेम, शुद्ध बुद्धि का, दूसरे का बल अपहरण करने में पारंगत, शत्रु-संहारकों में अग्रणी, मन से निश्चल तथा निडर और महासागर का सर्जन करनार कौन? राजा मय! जिसको शत्रुओं के भी आशीर्वाद मिले हैं।

श्लोक को ध्यान से पढ़ने पर आप पाते हैं की संस्कृत वर्णमाला के *सभी 33 व्यंजन इस श्लोक में दिखाये दे रहे हैं वो भी क्रमानुसार*। यह खूबसूरती केवल और केवल संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा में ही देखने को मिल सकती है! 

पूरे विश्व में केवल एक संस्कृत ही ऐसी भाषा है जिसमें केवल एक अक्षर से ही पूरा वाक्य लिखा जा सकता है, किरातार्जुनीयम् काव्य संग्रह में *केवल “न” व्यंजन से अद्भुत श्लोक बनाया है* और गजब का कौशल्य प्रयोग करके भारवि नामक महाकवि ने थोडे में बहुत कहा है-

*न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नानानना ननु।*
*नुन्नोऽनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नुन्ननुन्ननुत्॥*

अर्थात: जो मनुष्य युद्ध में अपने से दुर्बल मनुष्य के हाथों घायल हुआ है वह सच्चा मनुष्य नहीं है। ऐसे ही अपने से दुर्बल को घायल करता है वो भी मनुष्य नहीं है। घायल मनुष्य का स्वामी यदि घायल न हुआ हो तो ऐसे मनुष्य को घायल नहीं कहते और घायल मनुष्य को घायल करें वो भी मनुष्य नहीं है। वंदेसंस्कृतम्! 

एक और उदहारण है।-

*दाददो दुद्द्दुद्दादि दादादो दुददीददोः*
*दुद्दादं दददे दुद्दे ददादददोऽददः*

अर्थात: दान देने वाले, खलों को उपताप देने वाले, शुद्धि देने वाले, दुष्ट्मर्दक भुजाओं वाले, दानी तथा अदानी दोनों को दान देने वाले, राक्षसों का खण्डन करने वाले ने, शत्रु के विरुद्ध शस्त्र को उठाया।

है ना खूबसूरत? इतना ही नहीं, क्या किसी भाषा में *केवल 2 अक्षर* से पूरा वाक्य लिखा जा सकता है? संस्कृत भाषा के अलावा किसी और भाषा में ये करना असम्भव है। माघ कवि ने शिशुपालवधम् महाकाव्य में केवल “भ” और “र ” दो ही अक्षरों से एक श्लोक बनाया है। देखिये –

*भूरिभिर्भारिभिर्भीराभूभारैरभिरेभिरे*
*भेरीरे भिभिरभ्राभैरभीरुभिरिभैरिभा:।*

अर्थात- निर्भय हाथी जो की भूमि पर भार स्वरूप लगता है, अपने वजन के चलते, जिसकी आवाज नगाड़े की तरह है और जो काले बादलों सा है, वह दूसरे दुश्मन हाथी पर आक्रमण कर रहा है।

एक और उदाहरण-

*क्रोरारिकारी कोरेककारक कारिकाकर।*
*कोरकाकारकरक: करीर कर्करोऽकर्रुक॥*

अर्थात- क्रूर शत्रुओं को नष्ट करने वाला, भूमि का एक कर्ता, दुष्टों को यातना देने वाला, कमलमुकुलवत, रमणीय हाथ वाला, हाथियों को फेंकने वाला, रण में कर्कश, सूर्य के समान तेजस्वी [था]।

पुनः क्या किसी भाषा मे केवल *तीन अक्षर* से ही पूरा वाक्य लिखा जा सकता है? यह भी संस्कृत भाषा के अलावा किसी और भाषा में असंभव है!
उदहारण- 

*देवानां नन्दनो देवो नोदनो वेदनिंदिनां*
*दिवं दुदाव नादेन दाने दानवनंदिनः।।*

अर्थात- वह परमात्मा [विष्णु] जो दूसरे देवों को सुख प्रदान करता है और जो वेदों को नहीं मानते उनको कष्ट प्रदान करता है। वह स्वर्ग को उस ध्वनि नाद से भर देता है, जिस तरह के नाद से उसने दानव [हिरण्यकशिपु] को मारा था।

अब इस छंद को ध्यान से देखें इसमें पहला चरण ही चारों चरणों में चार बार आवृत्त हुआ है, लेकिन अर्थ अलग-अलग हैं, जो यमक अलंकार का लक्षण है। इसीलिए ये महायमक संज्ञा का एक विशिष्ट उदाहरण है -

विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा विकाशमीयुर्जतीशमार्गणा:।
विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा:॥

अर्थात- पृथ्वीपति अर्जुन के बाण विस्तार को प्राप्त होने लगे, जबकि शिवजी के बाण भंग होने लगे। राक्षसों के हंता प्रथम गण विस्मित होने लगे तथा शिव का ध्यान करने वाले देवता एवं ऋषिगण (इसे देखने के लिए) पक्षियों के मार्गवाले आकाश-मंडल में एकत्र होने लगे।

जब हम कहते हैं की संस्कृत इस पूरी दुनिया की सभी प्राचीन भाषाओं की जननी है तो उसके पीछे इसी तरह के खूबसूरत तर्क होते हैं। यह विश्व की अकेली ऐसी भाषा है, जिसमें "अभिधान- सार्थकता" मिलती है अर्थात् अमुक वस्तु की अमुक संज्ञा या नाम क्यों है, यह प्रायः सभी शब्दों में मिलता है। जैसे इस विश्व का नाम संसार है तो इसलिये है क्यूँकि वह चलता रहता है, परिवर्तित होता रहता है-
संसरतीति संसारः गच्छतीति जगत् आकर्षयतीति कृष्णः रमन्ते योगिनो यस्मिन् स रामः इत्यादि।
जहाँ तक मुझे ज्ञान है विश्व की अन्य भाषाओं में ऐसी अभिधानसार्थकता नहीं है। 
Good का अर्थ अच्छा, भला, सुन्दर, उत्तम, प्रियदर्शन, स्वस्थ आदि है किसी अंग्रेजी विद्वान् से पूछो कि ऐसा क्यों है तो वह कहेगा है बस पहले से ही इसके ये अर्थ हैं क्यों हैं वो ये नहीं बता पायेगा।
ऐसी सरल और स्मृद्ध भाषा जो सभी भाषाओं की जननी है आज अपने ही देश में अपने ही लोगों में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड रही है बेहद चिंताजनक है।

मंत्र जप की महत्वपूर्ण विधि

।। मंत्र जप की महत्वपूर्ण विधि ।।
मंत्र जप से तो हम सभी परिचित हैं | किसी भी मंत्र को बार बार दोहराना या उच्चारण ही मंत्र जप कहलाता है | हम सभी कभी न कभी, जाने अनजाने किसी न किसी समय पर मन्त्र का उच्चारण करते हैं | यही जप है | आज हम इसे और विस्तार से स्पस्ट करने का प्रयाश करेंगे | हमारी धार्मिक पुस्तकों में जगह जगह मंत्र जप से होने वाले लाभ का वर्णन किया जाता है | अक्सर वर्णन मिलता है की इस मंत्र का इतना जप कीजिये | तो ये इसका फल मिलेगा, इत्यादि | हमारे धर्म शाश्त्र इस के गुणगान से भरे पड़े हैं |

मगर क्या बात है की वो फल लोगों को नहीं मिल पाता है | ज्यादातर लोगों की ये शिकायत रहती है, की मंत्र काम नहीं करता है | और ये जो सब पुरश्चरण (निश्चित संख्या में जप का अनुष्ठान) आदि का जो वर्णन हमारे शास्त्रों में किया गया है | वो केवल कपोल कल्पना है|इस प्रकार उन लोगों का जप से विश्वास ही उठ जाता है |

क्या वो लोग झूंठ बोल रहे हैं ? नहीं बिलकुल नहीं |
वो सत्य ही बोल रहे हैं | क्योंकि उन्हें ऐसा कुछ अनुभव नहीं हुआ है | और जब तक स्वयं को कोई अनुभव न हो तब तक चाहे सारी दुनिया उसे प्रमाणित करे वो सत्य नहीं है |

फिर क्या हमारे शास्त्र झूंठ बोल रहे है, की ऐसा करने से ये होगा, और ऐसा करने से ये होगा ? नहीं बिलकुल नहीं |
ये शत प्रितिशत सत्य है की जप का फल मिलता है | और जो भी अनुष्ठान आदि का वर्णन शास्त्रों में किया गया है वो पूर्णत सत्य है |तब प्रश्न उठता है की कैसे दोनों सच्चे हो सकते हैं ?

मैं बताता हूँ.........
साधक इसलिए सच्चा है | क्योंकि उसने अपनी पूरी सामर्थ्य लगाकर जप किया | जो जो भी शास्त्रों में" और उसके गुरु ने " बताया गया था | वो सब उसने किया | निश्चित शंख्या में जप, हवन, तर्पण व और सभी क्रियाएं | मगर उसके बाद भी जिस तरह के फल का वर्णन जगह जगह किया जाता है | उसे वो फल नहीं मिला | तो वो कहेगा की ऐसा कुछ नहीं होता, और ये सब बकवास है | वो झूंठ नहीं बोल रहा है | जो अनुभव हुआ है, वही वो बोल रहा है | और मात्र अनुभव ही सत्य है | बाकि सब झूंठ है | उसे अनुभव नहीं हुआ तो उसने इस सबको बेकार मान लिया | उसके बाद वो निराश हो गया | और फिर ये मार्ग ही छोड़ देता है | इसके बाद यदि कोई और भी उससे कुछ इस सम्बन्ध में पूछेगा | तो स्वाभाविक बात है की वो बोलेगा नहीं ये सब बकवास है | वो साधक तो साधना से विमुख हो ही चुका है |

इसमें किसी का दोष नहीं है | मात्र सही तरह से तरह से जप नहीं कर पाने की वजह से ऐसा है | हम मन्त्र जप के बारे में थोडा और स्पष्ट करते हैं !!

!! मंत्र जप में आने वाले विघ्न !! 
किसी भी जप के समय हमारा मन हमें सबसे ज्यादा परेशान करता है, और निरंतर तरह तरह के विचार अपने मन में चलते रहेंगे | यही मन का स्वभाव है और वो इसी सब में उलझाये रखेगा | तो सबसे पहले हमें मन से उलझना नहीं है | बस देखते जाना है न विरोध न समर्थन, आप निरंतर जप करते जाइये | आप भटकेंगे बार बार और वापस आयेंगे | इसमें कोई नयी बात नहीं है ये सभी के साथ होता है | ये सामान्य प्रिक्रिया है | इसके लिए हमें माला से बहुत मदद मिलती है | मन हमें कहीं भटकाता है मगर यदि माला चलती रहेगी तो वो हमें वापस वहीँ ले आएगी | ये अभ्याश की चीज है जब आप अभ्याश करेंगे तो ही जान पाएंगे !!

!! मंत्र जप के प्रकार !! 
सामान्यतया जप के तीन प्रकार माने जाते हैं जिनका वर्णन हमें हमारी पुस्तकों में मिला है, वो हैं :-

१. वाचिक जप :- वह होता है जिसमें मन्त्र का स्पष्ट उच्चारण किया जाता है।

२. उपांशु जप- वह होता है जिसमें थोड़े बहुत जीभ व होंठ हिलते हैं, उनकी ध्वनि फुसफुसाने जैसी प्रतीत होती है।

३. मानस जप- इस जप में होंठ या जीभ नहीं हिलते, अपितु मन ही मन मन्त्र का जाप होता है।
मगर जब हम मंत्र जप प्रारंभ करते हैं तो हम जप की कई अलग अलग विधियाँ या अवश्था पाते हैं !!

सबसे पहले हम मंत्र जप, वाचिक जप से प्रारंभ करते हैं | जिसमे की हम मंत्र जप बोलकर करते हैं, जिसे कोई पास बैठा हुआ व्यक्ति भी सुन सकता है | ये सबसे प्रारंभिक अवश्था है | सबसे पहले आप इस प्रकार शुरू करें | क्योंकि शुरुआत में आपको सबसे ज्यादा व्यव्धान आयेंगे | आपका मन बार बार दुनिया भर की बातों पर जायेगा | ऐसी ऐसी बातें आपको साधना के समय पर याद आएँगी | जो की सामान्यतया आपको याद भी नहीं होंगी | आपके आस पास की छोटी से छोटी आवाज पर आपका धयान जायेगा | जिन्हें की आप सामान्यतया सुनते भि नहीं हैं | जिससे की आपको बहुत परेशानी होगी | तो उन सब चीजों से अपना ध्यान हटाने के लिए आप जोर जोर से जप शुरू करेंगे | बोल बोलकर जप करते समय आपके जप की गति भी तेज़ हो जाएगी |

ये बात ध्यान देने की है की जितना भी आप बाहर जप करेंगे | उतना ही जप की गति तेज रहेगी और जैसे जैसे आप जितना अन्दर डूबते जायेंगे | उतनी ही आपकी गति मंद हो जाएगी | ये स्वाभाविक है, इसमें कोई परिवर्तन नहीं कर सकता है | आप यदि प्रयाश करें तो बोलते हुए भी मंद गति में जप कर सकते हैं | मगर अन्दर तेज गति में नहीं कर सकते हैं |

अगली अवश्था आती है जब हमारी वाणी मंद होती जाती है | ये तब ही होता है जब आप पहली अवश्था में निपुण हो जाते हैं | जब आप बोल बोलकर जप करने में सहज हो गए और आपके मन में कोई विचार आपको परेशां नहीं कर रहा है तो दूसरी अवश्था में जाने का समय हो गया है | इसमें नए लोगों को समय लगेगा | मगर प्रयाश से वो स्थिती जरूर आएगी | तो जब आप सहज हो जाएँ तो सबसे पहले क्या करना है की अपनी ध्वनी को धीमा कर दें | और जैसे कोई फुसफुसाता है उस अवश्था में आ जाएँ | अब यदि कोई आपके पास बैठा भी है तो उसे ये पता चलेगा की आप कुछ फुसफुसा रहे हैं | मगर शब्द स्पस्ट नहीं जान पायेगा | जब आप पहली से दूसरी अवश्था में आते हैं तो फिर से आपको व्यवधान परेशान करेंगे | तो आप लगे रहिये, और ज्यादा परेशान हों तो फिर पहली अवश्था में आ जाएँ, और बोल बोलकर शुरू कर दें जब शांत हो जाएँ तो आवाज को धीमी कर दें और दूसरी अवश्था में आ जाएँ | थोडा समय आपको वहां पर अभ्यस्त होने में लगेगा | जैसे ही आप वहां अभ्यस्त हुए तो धीमे से अपने होंठ भी बंद कर दें |

ये तीसरी अवश्था है जहाँ पर आपके अब होंठ भी बंद हो गए हैं | मात्र आपकी जिह्वा जप कर रही है | अब आपके पास बैठा हुआ व्यक्ति भी आपका जप नहीं सुन सकता है | मगर यहाँ भी वही दिक्कत आती है की जैसे ही आप होंठ बंद करते हैं तो आपका ध्यान दूसरी बातों पर जाने लगता है | मन भटकने लगता है | तो यहाँ भी आपको वही सूत्र अपनाना है की होंठों को हिलाकर जप करना शुरू कर दीजिये | जो की आपका अभ्यास पहले ही बन चूका है और जब शांत हो जाएँ तो चुपके से होंठ बंद कर लीजिये, और अन्दर शुरू हो जाइये | इसी तरह आपको अभ्याश करना होगा | मन आपको बहकता है तो आप मन को बहकाइए | और एक अवश्था से दूसरी अवश्था में छलांग लगाते जाइये |

 इसके बाद चोथी अवश्था आती है मानस जप या मानसिक जप की | जब आपको कुछ समय हो जायेगा होठों को बंद करके जप करते हुए और आप इसके अभ्यस्त हो जायेंगे | भाइयों इस अवश्था तक पहुँचने में काफी समय लगता है | सब कुछ आपके अभ्याश व प्रयाश पर निर्भर करता है | तो उसके बाद आप अपनी जीभ को भी बंद कर देंगे | ये करना थोडा मुश्किल होता है क्योंकि जैसे ही आपकी जीभ चलना बंद होगी | तो आपका मन फिर सक्रीय हो जायेगा | और वो जाने कहाँ कहाँ की बातें आपके सामने लेकर आएगा | तो यहाँ भी वही युक्ति से काम चलेगा की जीभ चलाना शुरू कर दें | जब वहां आकाग्र हो जाये और फिर उसे बंद कर दें, और अन्दर उतर जाएँ और मन ही मन जप शुरू कर दें | धीरे धीरे आप यहाँ पर अभ्यस्त हो जायेंगे और निरंतर मन ही मन जप चलता रहेगा | इस अवश्था में आप कंठ पर रहकर जप करते रहते हैं |

इसके बाद किताबों में कोई और वर्णन नहीं मिलता है | मगर मार्ग यहाँ से आगे भी है | और असली अवश्था यहाँ के बाद ही आनी है |
इसके बाद आप और अन्दर डूबते जायेंगे | अन्दर और अन्दर धीरे धीरे | निरंतर अन्दर जायेंगे | लगभग नाभि के पास आप जप कर रहे होंगे | और धीरे धीरे जैसे जैसे आप वहां पर अभ्यस्त होंगे तो आप एक अवश्था में पाएंगे की मैं जप कर ही नहीं रहा हूँ |

बल्कि वो उठ रहा है | वो अपने आप उठ रहा है | नाभि से उठ रहा है | आप अलग है | हाँ आप देख रहे हैं की मैं जपने वाला हूँ ही नहीं | वो स्वयं उठ रहा है | आपका कोई प्रयाश उसके लिए नहीं है | आप अलग होकर मात्र द्रष्टा भाव से उसे देख रहे हैं और महसूस कर रहे हैं | ये शायद जप की चरम अवश्था है | निरंतर जप चल रहा है | वो स्वत है और आप द्रष्टा हैं | इसी अवश्था को अजपाजप कहा गया है | जिस अवश्था में आप जप नहीं कर रहें हैं मगर वो स्वयं चल रहा है |
धीरे धीरे इस अवश्था में आप देखेंगे कि आप कुछ और काम भी कर रहे हैं | तो भी जब भी आप ध्यान देंगे तो वो स्वयं चल रहा है | और यदि नहीं चल रहा है, तो जब भी आपका ध्यान वहां जाये | तो आप मानसिक जप शुरू कर दें | तो उस अवश्था में पहुँच जायेंगे |
शास्त्रों में जप के सभी फल इसी अवश्था के लिए कहे गए हैं | आप इस अवश्था में जप कीजिये और सभी फल आपको मिलेंगे | जप और ध्यान यहाँ पर एक ही हो जाते हैं | जैसे जैसे आप उस पर धयान देंगे तो आगे कुछ नहीं करना है | बस उस में एकाकार हो जाइये | और मंजिल आपके सामने होगी !!

!! आपका प्रयास !! 
सबसे अच्छा तरीका है कि आप जिस भी मंत्र का जप करते हैं | उसे कंठस्थ करें और जब भी आपके पास समय हो तभी आप अन्दर ही अन्दर जप शुरू कर दें | आप आसन पर नियम से जो जप करते हैं | उसे करते रहें उसी प्रकार | बस थोडा सा अतिरिक्त प्रयास शुरू कर दें |

कई सारे लोग कहेंगे की हमें समय नहीं मिलता है आदि आदि | कितना भी व्य्शत व्यक्ति हो वो कुछ समय के लिए जरूर फ्री होता है | तो आपको बस सचेत होना है | अपने मन को आप निर्देश दें और ध्यान दें | बस जैसे ही आप फ्री हों तो जप शुरू | और कुछ करने की जरूरत ही नहीं है | बस यही नियम और धीरे धीरे आप दुसरे कम ध्यान वाले कार्यों को करते हुए भी जप करते रहेंगे | निरंतर उस जप में डूबते जाइये |

जब आप सोने के लिए बिस्तर पर जाये तो अपने सभी कर्म अपने इष्ट को समर्पित करें | अपने आपको उन्हें समर्पित करें | और मन ही मन जप शुरू कर दें | और धीरे धीरे जप करते हुए ही सो जाएँ | शुरू शुरू में थोडा परेशानी महसूस करेंगे मगर बस प्रयास निरंतर रखें | इससे क्या होगा की आपका शरीर तो सो जायेगा | मगर आपका सूक्ष्म शरीर जप करता रहेगा | आपकी नींद भी पूरी हो गयी और साधना भी चल रही है |

जैसे ही सुबह आपकी ऑंखें खुलें तो अपने इष्ट का ध्यान करें | और विनती करें की प्रभु आज मुझसे कोई गलत कार्य न हो | और यदि आज कोई ऐसी अवश्था आये तो आप मुझे सचेत कर देना और मुझे मार्ग दिखाना | इसके बाद मानसिक जप शुरू कर दें | सभी और नित्य कार्यों को करते हुए इसे निरंतर रखें | फिर जब जब आप कोई गलत निर्णय लेने लगेंगे तो आपके भीतर से आवाज आएगी | धीरे धीरे आप अपने आपमें में परिवर्तन महसूस करेंगे | और धीरे धीरे आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ जायेंगे !!

मगर ये एक दिन में नहीं होगा | बहुत प्रयाश करना होगा | निरंतर चलना होगा | तभी मंजिल मिलेगी | इसलिए अपने आपको तैयार कीजिये और साधना में डूब जाइये | आपको सब कुछ मिलेगा।

गुरु?

गुरु किसी शरीर का नाम नही और न ही किसी अस्थि, मांस से निर्मित व्यक्ति को ही कहते हैं। गुरु तो वह तत्त्व है जिसके शरीर में ज्ञान की वह चेतना स्थिति है , जो ब्रह्म ज्ञान में लीन है।
चेतन गुरु तो वही होता है, जो देह से परे हैं और सबमें समाये हुए एक पवित्र आत्मिक लौ की तरह सदैव प्रज्ज्वलित हैं। मेरे मतानुसार जीवन्त गुरु की यही व्याख्या है, और सिर्फ ऐसा व्यक्तित्त्व ही गुरु होने के योग्य होता है। लोग अपने मत, पंथ अनुसार गुरु दीक्षा ग्रहण करते है, और करना भी चाहिये।

लेकिन दीक्षा ग्रहण करने पहले यह अवश्य जान लें कि दीक्षा है क्या? 
शिष्य के पूर्ण आत्मसमर्पण और गुरु के पूर्ण आत्मदान रूपी पवित्र संगम को दीक्षा कहते हैं।
साधना जहां जीवन की एक मन्द प्रक्रिया है, वहीं गुरु दीक्षा तत्काल साधक के आध्यात्मिक जीवन में ज्ञान- विज्ञान के परमाणु परिवर्तित कर देने की क्रिया है। 
जिसने अपने आप को सद्गुरु को अपने समाहित कर लिया वही शिष्य एकाकार होकर देवत्त्व प्राप्त कर सकता है।
।।ॐ गुं गुरुभ्यो नमः।।